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सर्दी के मौसम पर कविता :- हाड़ कँपाता आया जाड़ा


सर्दी के मौसम में ठण्ड के मारे जीवन और भी कठिन हो जाता है। कोई भी काम करने का दिल नहीं करता। मन कहता है कि बैठे-बैठे रजाई में ही चाय और खाना मिलता रहे। लेकिन ऐसा तो किसी भी दशा में संभव नहीं है सर्दी में आने वाली कठिनाइयों का सामना तो करना ही पड़ता है। तो ऐसे में क्या होती है सबकी हालत। बयान कर रहे हैं सुरेश चन्द्र ” सर्वहारा ” जी अपनी इस ” सर्दी के मौसम पर कविता ” में :-

सर्दी के मौसम पर कविता

सर्दी के मौसम पर कविता

हाड़ कँपाता आया जाड़ा
आ गर्मी को खूब पछाड़ा ,
सिट्टी पिट्टी गुम सूरज की
शेर बना जो कभी दहाड़ा ,

नर्म धूप ने गरमाई से
लगता अपना पल्ला झाड़ा ,
शीतलहर घुस रही घरों में
माँग रही हो जैसे भाड़ा ,

काँप रही है देह ठण्ड से
रटते किट किट दाँत पहाड़ा,
भाप निकलने लगती फक फक
कुछ कहने ज्यों ही मुँह फाड़ा ,

साधनहीनों को यह मौसम
लगता बिल्कुल तिरछा आड़ा ,
जम कर जैसे बर्फ हो रहा
रह जाता जो अंग उघाड़ा ,

कान खड़े कर लो सब अपने
सर्दी का बज रहा नगाड़ा ,
बात नहीं जो इसकी सुनता
उसका इसने काम बिगाड़ा ,

चलते रहना ही जीवन है
कहता हमसे आकर जाड़ा,
जो कष्टों को सह जाता है
यहाँ उसी ने झंडा गाड़ा ।

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