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कबीर के दोहे अर्थ सहित | कबीर की रचनाओं का संकलन भाग – 2


कबीर के दोहे अर्थ सहित

कबीर के दोहे अर्थ सहित

कबीर के दोहे अर्थ सहित:- कबीर दास जी ने मनुष्यों को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए दोहों की रचना की। इन दोहों को पढ़कर इंसान में सकारात्मकता आती है। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित होता है। इसीलिए हमने अपने पाठको के लिए कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित लेके आये है। कबीर दास जी के दोहे के संकलन का ये दूसरा भाग है।
पहला भाग यहाँ से पढ़ सकते है- कबीर के दोहे भाग १

पढ़िए कबीर के दोहे अर्थ सहित भाग 2 –

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल।।

अर्थ :- जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता है, आप उसके लिए फूल बोइये। आपके आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे जबकि वह व्यक्ति काँटों में घिर जाएगा।


दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

अर्थ :- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।


कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।


माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।


पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय।
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।।

अर्थ :- संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।


मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।

अर्थ :- संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।


सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।

अर्थ :- कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।


गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान।।

अर्थ :- सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित करदो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो। “गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये। उनका उद्धार नहीं हो सका।


गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, नहीं पलपल ध्यान लगाय।।

अर्थ :- ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने। गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें। जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया।


गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक  की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान।।

अर्थ :- संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है । ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोलसंपत्ति गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवल याचना करके ही शिष्य पा लेता है।


भक्ति जुसिढी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ी सकै, निज मन समझो आय।।

अर्थ :- भक्ति वह सीधी है जिस पर चढ़ने के लिए भक्तो के मन में आपार ख़ुशी होती है क्योंकि भक्ति हो मुक्ति का साधन है। भक्तों के अतिरिक्त इस पर एनी कोई नहीं चढ़ सकता। ऐसा अपने मन में निश्चित कर लो।


कबीर हरि के रुठते, गुरु के शरणै जाय।
कहै कबीर गुरु रुठते , हरि नहि होत सहाय।।

अर्थ :- प्राणी जगत को सचेत करते हुए कहते हैं – हे मानव, यदि भगवान तुम से रुष्ट होते है तो गुरु की शरण में जाओ । गुरु तुम्हारी सहायता करेंगे अर्थात सब संभाल लेंगे किन्तु गुरु रुठ जाये तो हरि सहायता नहीं करते जिसका तात्पर्य यह है कि गुरु के रुठने पर कोई सहायक नहीं होता।


विषय त्याग बैराग है, समता कहिये जान।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान।।

अर्थ :- कबीर दास जी संसारी जीवो को सन्मार्ग की शिक्षा देते हुए कहते है की पाँचों  विषयों को त्यागना ही वैराग्य है। भेद भाव आदि दुर्गुणों से रहित होकर समानता का व्यवहार करना ही परमज्ञान है और स्नेह, उचित आचरण भक्ति का सत्य प्रमाण है। भक्तों में ये सद्गुण विद्यमान होते है।


तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान।।

अर्थ :- जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान रूपी उपदेश से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है। अधिक लोभ करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है। और अभिमान करने से भक्ति का नाश हो जाता है अतः लोभ आदि से बचकर रहना ही श्रेयस्कर है।


कह आकाश को फेर है , कह धरती को तोल।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल।।

अर्थ :- आकाश की गोलाई , धरती का भार , साधु सन्तो की जाति क्या है तथा पारसमणि का मोल क्या है? कबीर जी कहते है कि इनका अनुमान लगा पाना असम्भव है अतः ऐसी चीजों के चक्कर में न पड़कर सत्य ज्ञान का अनुसरण करिये जिससे परम कल्याण निहित है।


जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय।
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय।।

अर्थ :- जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसके मृतक शरीर को जला देते है। शरीर जल जाने के बाद वहाँ राख की ढेरी मात्र बचती है जिस पर हरी हरी घास उग जाती है। जरा शान्त मन से विचार करो कि वे भी मनुष्य थे जो रास रंग, आमोद प्रमोद में विलास करते थे और आज उनके जल चुके शरीर की अवशेष राख पर घास उग आयी है।


जरा आय जोरा किया, नैनन दीन्ही पीठ।
आंखो ऊपर आंगुली, वीष भरै पछनीठ।।

अर्थ :- वृध्दावस्था ऊपर आई तो उसने अपना जोर दिखाया , कमजोर शरीर के साथ आँखों ने पीठ फेर ली अर्थात कम दिखायी पड़ने लगा। यहाँ तक कि आँखों के ऊपर अंगुलियों की छाया करने पर बहुत थोडा सा दिखायी पड़ता है।


झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गये हिराय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि जिसने सूक्ष्म माया का त्याग कर दिया, जिसने मन की आसक्ति रूपी सूक्ष्म माया से नाता तोड़ लिया उसकी मोटी माया स्वतः ही नष्ट हो जाती है और वह ज्ञान रूपी अमृत पाकर सुखी हो जाता है। उसके समस्त दुःख दूर चले जाते है अतः सूक्ष्म माया को दूर भगाने का प्रयत्न करना चाहिए।

माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि माया के दो स्वरुप है। यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है किन्तु माया के दूसरे  स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है।


कबीर माया मोहिनी, मांगी मिलै न हाथ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ।।

अर्थ :- कबीर जी के वचनासुनर  माया अर्थात धन, सम्पति वैभव संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहने वाली है तथा माँगने से किसी के हाथ नहीं आती। जो इसे झूठा समझकर , सांसारिक मायाजाल समझकर उतार फेंकता है उसके पीछे दौड़ी चली आती है तात्पर्य यह कि चाहने पर दूर भागती है और त्याग करने पर निकट आती है।


कबीर कमाई आपनी, कबहुं न निष्फल जाय।
सात समुद्र आड़ा पड़े, मिलै अगाड़ी आय।।

अर्थ :- कबीर साहेब कहते है कि कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाये अर्थात कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतः सत्कर्म करें।


जहां काम तहां नहिं, जहां नाम नहिं काम।
दोनों कबहू ना मिलै, रवि रजनी इक ठाम।।

अर्थ :- जहाँ विषय रूपी काम का वस् होता है उस स्थान पर सद्गुरु का नाम एवम् स्वरुप बोध रूपी ज्ञान नहीं ठहरता और जहाँ सद्गुरु का निवास होता है वहाँ काम के लिए स्थान नहीं होता जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधेरा दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते उसी प्रकार ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते।


कामी का गुरु कामिनी, लोभी का गुरु दाम।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम।।

अर्थ :- कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है। उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे संतों की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं।


हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।


जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो  गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।


हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।

अर्थ :- यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।


कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।


कबीर पांच पखेरुआ, राखा पोश लगाय।
एक जू आया पारधी, लगइया सबै उड़ाय।।

अर्थ :- सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते है कि अपान, उदान, समान, व्यान और प्राण रूपी पांच पक्षियों को मनुष्य अन्न जल आदि पाल पोषकर सुरक्षित रखा किन्तु एक दिन काल रूपी शिकारी उड़ाकर अपने साथ ले गया अर्थात मृत्यु हो गयी।


कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हे मानव! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।


जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।

अर्थ :- इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।


पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।

अर्थ :- कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।


ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।

अर्थ :- कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न  मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।


मूलध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है – ध्यान का मूल रूप गुरु हैं अर्थात सच्चे मन से सदैव गुरु का ध्यान करना चाहिये और गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिये और गुरु के मुख से उच्चारित वाणी को ‘सत्यनाम’ समझकर प्रेमभाव से सुधामय अमृतवाणी का श्रवण करें अर्थात शिष्यों के लिए एकमात्र गुरु ही सब कुछ हैं।


प्रेम बिना जो भक्ती ही सो निज दंभ विचार।
उदर भरन के कारन , जन्म गंवाये सार।।

अर्थ :- प्रेम के बिना की जाने वाली भक्ती, भक्ती नहीं बल्की पाखंड ही । वाहय आडम्बर है। प्रदर्शन वाली भक्ति को स्वार्थ कहते है जो पेट पालने के लिए करते है। सच्ची भक्ति के बिना सब कुछ व्यर्थ है। भक्ति का आधार प्रेम है अतः प्रेम पूर्वक भक्ति करे जिससे फल प्राप्त हो।


भक्ति निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन जिन मन आलस किया , जनम जनम पछिताय।।

अर्थ :- मुक्ति का मूल साधन भक्ति है इसलिए साधू जन और ज्ञानी पुरुष इस मुक्ति रूपी साधन पर दौड़ कर चढ़ते है। तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना करते है किन्तु जो लोग आलस करते है। भक्ति नहीं करते उन्हें जन्म जन्म पछताना पड़ता है क्योंकि यह सुअवसर बार बार नहीं अता।


गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

अर्थ :- गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को। ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ।


लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट॥

अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की।


दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों!


कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।


साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।

अर्थ :- इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।


तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है!


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।

अर्थ :- मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा!


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

अर्थ :- कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

अर्थ :- सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।


दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।

अर्थ :- यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।


जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

अर्थ :- जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।

अर्थ :- यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।


क्रिया करै अंगूरी गिनै, मन धावै चहु ओर।
जिहि फेरै सांई मिलै, सों भय काठ कठोर।।

अर्थ :- जप करते समय अंगुली पर जप की गणना करते है कि मैंने कितनी बार नाम पाठ किया किन्तु उस समय भी उनका चंचल मन चारों ओर दौड़ता है, स्थिर नहीं रहता। ऐसे सुमिरन से क्या लाभ? जब तुम अपने मन रूपी मयूर को स्थिर नहीं रख सकते तप अविनाशी प्रभु रम के दर्शन की इच्छा कैसे करते हो? मन तो सुखी लकड़ी के समान कठोर हो गया है अर्थात प्रभु के दर्शनों के लिए मन को शुद्ध करना होगा तथा मन की चंचलता को रोकना होगा।


यह मन ताको दीजिए, सांचा सेवक होय।
सर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय।।

अर्थ :- अपना सत्य ज्ञान रुपी अमृत उसको प्रदान करें जो सेवा करना जानता हो अर्थात् सच्चे सेवक को ज्ञान दें। यदि सिर के ऊपर आरा भी चलता है तो वह प्रसन्नपूर्वक सहन कर लें। तात्पर्य यह कि निष्ठापूर्वक सेवा करने वाले ही ज्ञान प्राप्त करने के पात्र है।


तन मन ताको दीजिए, जाको विषय नाहिं।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब मांहि।।

अर्थ :- अपना तन मन उस गुरु के चरणों में अर्पित करें जो संसारिक विषय विकारों से मुक्त हो। जो पूर्ण रूप से अहंकार मुक्त और आत्मतत्व का ज्ञाता हो। ऐसे गुरु ही आत्म साक्षात्कार कैरा सकते है।


अधिक सनेही माछरी, दूजा अपल सनेह।
जबहि जलते बिछुरै, तब ही त्यागै देह।।

अर्थ :- मछली का बहुत अधिक प्रेम जल से होता है। उसके समान प्रेमी कम ही मिलते हैं। मछली जब भी जल से बिछुडती है, वह तडप तडप कर जल के लिए अपने प्राण त्याग देती है। ठीक मछली की भांति सच्चा प्रेम करना चाहिए।


सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय।
सांस सांस सुमिरण करूं, इक दिन मिलसी आय।।

अर्थ :- सुमिरन करने का बहुत ही सरल मार्ग सद्गुरू ने बता दिया है। उसी मार्ग पर चलते हुए मैं सांस सांस में परमात्मा का सुमिरन करता हूं जिससे मुझे एक दिन उनके दर्शन निश्चित ही प्राप्त होगें। अर्थात् सुमिरन प्रतिदिन की साधना हैं जो भक्त को उसके लक्ष्य की प्राप्ति करती है।


बिना सांच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न सोय।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय।।

अर्थ :- बिना सत्य ज्ञान के सुमिरन नहीं होता, बिना गुरु के भक्ति नहीं होती अर्थात् सद्गुरू के बिना सार रहस्य कौन बताये और बताये जब तक सार रहस्य का ज्ञान नहीं होता सुमिरन करना निरर्थक है जैसे पारसमणि पर परदा पडा है तो उसके स्पर्श से लोहा कदापि सोना नहीं बन सकता। वह परदा ही दोष है उसी प्रकार यदि मन में, ज्ञान का अभाव है तो साधना सफल नहीं हो सकता।


बालपन भोले गया, और जुवा महमंत।
वृध्दपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त।।

अर्थ :- बाल्यकाल भोलेपन में व्यतीत हो गया अर्थात् अनजान अवस्था में बीत गया युवावस्था आयी तो विषय वासनाओं में गुजार दिया तथा वृद्धावस्था आई तो आलस में बीत गयी और अन्त समय में मृत्यु हो गयी और शरीर चिता पर जलने के लिए तैयार है।


जनोता बूझा नहीं, बुझि किया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावै कौन।।

अर्थ :- जो सद्गुरू की शरण में पहुँचे कर भी सन्मार्ग पर नहीं चला। कल्याण का मार्ग सन्मुख होते हुए भी आगे नहीं बढ़ा अर्थात् जान बूझकर उसने भूल कि उसके बाद ऐसे व्यक्ति से मिला जो स्वयं अज्ञानी था। तो फिर मार्ग कौन बताये क्योंकि दोनों अंधकार रुपी अंधेपन के कारण भटक रहे थे।


रक्त छोड़ पय हो गहै, ज्यौरे गऊ का बच्छ।
औगुण छांडै गुण गहै, ऐसा साधु का लच्छ।।

अर्थ :- गाय के थन में दूध और खून दोनों होता है किन्तु बछड़ा जब मुंह लगाता है तो वह खून नहीं पीता बल्कि सिर्फ दूध ही ग्रहण करता है ठीक ऐसे ही लक्षण से साधुजन परिपूर्ण होते हैं। वे दूसरों के अवगुणों को ग्रहण नहीं करते उनके सद्गुणों को ही धारण करते है।


सब वन तो चन्दन नहीं, शुरा के दल नाहिं।
सब समुद्र मोती नहीं, यों साधू जग माहिं।।

अर्थ :- सारा वन चन्दन नहीं होता, सभी दल शूरवीरों के नहीं होते, सारा समुद्र मोतियों से नहीं भरा होता इसी प्रकार संसार में ज्ञानवान विवेकी और सिद्ध पुरुष बहुत कम होते है।


आसन तो एकान्त करै, कामिनी संगत दूर।
शीतल संत शिरोमनी, उनका ऐसा नूर।।

अर्थ :- संतों का कहना है कि आसन एकान्त में लगाना चाहिए और स्त्री, की संगत से दूर रहना चाहिए। सन्तों का मधुर स्वभाव ऐसा होता है कि वे सबके पूज्य और शिरोमणि होते है।

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