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कबीर दास जी के दोहे । कबीर की रचनाओं का संकलन भाग – 3

by ApratimGroup
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कबीर दास जी के दोहे

कबीर दास जी के दोहे

कबीर दास जी के दोहे:- कबीर दास जी ने मनुष्यों को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए दोहों की रचना की। कबीर दास जी के दोहे को पढ़कर इंसान में सकारात्मकता आती है। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित होता है। इसीलिए हमने अपने पाठको के लिए कबीर दास जी के दोहे हिंदी अर्थ सहित लेके आये है। कबीर दास जी के दोहे के संकलन का ये तीसरा भाग है।

पहला भाग यहाँ से पढ़ सकते है- कबीर के दोहे भाग १

पढ़िए कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित भाग 3 –

शीलवन्त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।।

अर्थ :- सद्गुरु की सेवा करने वाले शीलवान, ज्ञानवान और उदार ह्रदय वाले होते हैं और लज्जावान बहुत ही निश्छल स्वभाव और कोमल वाले होते है।


कबीर गुरु सबको चहै , गुरु को चहै न कोय।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि सबको कल्याण करने के लिए गुरु सबको चाहते है किन्तु गुरु को अज्ञानी लोग नहीं चाहते क्योंकि जब तक मायारूपी शरीर से मोह है तह तक प्राणी सच्चा दास नहीं हो सकता।


प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जो रुचै, शीश देय ले जाय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वास्तु नहीं है। प्रेम नामक अमृत राजा रंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुच कर लगे अपना शीश देकर बदले में ले।


साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द।
तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द।।

अर्थ :- साधु सन्त एवम ज्ञानी महात्मा को समुद्र की सीप के समान जानो और सद्गुरु को स्वाती नक्षत्र की अनमोल पानी की बूंद जानो जिसकी एक बूंद से ही सारी प्यास मिट गई फिर समुद्र के निकट जाने का क्या प्रयोजन। सद्गुरु के ज्ञान उपदेश से मन की सारी प्यास मिट जाती है।


आठ पहर चौसंठ घड़ी, लगी रहे अनुराग।
हिरदै पलक न बीसरें, तब सांचा बैराग।।

अर्थ :- आठ प्रहर और चौसंठ घड़ी सद्गुरु के प्रेम में मग्न रहो अर्थ यह कि उठते बैठते, सोते जागते हर समय उनका ध्यान करो। अपने मन रूपी मन्दिर से एक पल के लिए भी अलग न करो तभी सच्चा बैराग्य है।


सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम।
एक पल बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम।।

अर्थ :- सुमिरण करने का उपाय बहुत ही सरल है किन्तु मन को एकाग्र करके उसमें लगाना अत्यन्त कठिन है। जिस तरह कामी पुरुष का मन हर समय विषय वासनाओं में लगा रहता है उसी तरह सुमिरण करने के लिए ध्यान करो। एक पल भी व्यर्थ नष्ट मत करो। सुबह, शाम, रात आठों पहर सुमिरण करो।


सुमिरण की सुधि यौ करो, ज्यौं गागर पनिहारि।
हालै डीलै सुरति में, कहैं कबीर बिचारी।।

अर्थ :- संत कबीर जी सुमिरण करने की विधि बताते हुए कहते है कि सुमिरन इस प्रकार करो जैसे पनिहार न अपनी गागर का करती है। गागर को जल से भरकर अपने सिर पर रखकर चलती है। उसका समूचा शरीर हिलता डुलता है किन्तु वह पानी को छलकने नहीं देती अर्थात हर पल उसे गागर का ध्यान रहता है उसी प्रकार भक्तों को सदैव सुमिरण करना चाहिए।


दया का लच्छन भक्ति है, भक्ति से होवै ध्यान।
ध्यान से मिलता ज्ञान है, यह सिद्धान्त उरान।।

अर्थ :- दया का लक्षण भक्ति है और श्रद्धा पूर्वक भक्ति करने से परमात्मा का ध्यान होता है। जो ध्यान करता है उसी को ज्ञान मिलता है यही सिद्धान्त है जो इस सिद्धान्त का अनुसरण करता है उसके समस्त क्लेश मिट जाते है।


दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप।।

अर्थ :- परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है। कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है। जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए।


तेरे अन्दर सांच जो, बाहर नाहिं जनाव।
जानन हारा जानि है, अन्तर गति का भाव।।

अर्थ :- तुम्हारे अन्दर जो सत्य भावना निहित है उसका प्रदर्शन मत करो। जो अन्तर गति का रहस्य जानने वाले ज्ञानी का प्रदर्शन करना उचित नहीं है।


कामी कबहूँ न गुरु भजै, मिटै न सांसै सूल।
और गुनह सब बख्शिहैं, कामी डाल न भूल।।

अर्थ :- कम के वशीभूत व्यक्ति जो सांसारिक माया में लिप्त रहता है वह कभी सद्गुरु का ध्यान नहीं करता क्योंकि हर घड़ी उसके मन में विकार भरा रहता है, उसके अन्दर संदेह रूपी शूल गड़ा रहता है जिस से उसका मनसदैव अशान्त रहता है। संत कबीर जी कहते हैं कि सभी अपराध क्षमा योग्य है किन्तु कामरूपी अपराध अक्षम्य है जिसके लिए कोई स्थान नहीं है।


धरती फाटै मेघ मिलै, कपडा फाटै डौर।
तन फाटै को औषधि , मन फाटै नहिं ठौर।।

अर्थ :- धरती फट गयी है अर्थात दरारे पड़ गयी है तो मेघों द्वारा जल बरसाने पर दरारें बन्द हो जाती हैं और वस्त्र फट गया है तो सिलाई करने पर जुड़ जाता है। चोट लगने पर तन में दवा का लेप किया जाता है जिससे शरीर का घाव ठीक हो जाता है किन्तु मन के फटने पर कोई औषधि या कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता।


माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार।।

अर्थ :- माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है। फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है।


झूठा सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद।
जगत – चबेना काल का , कछु मूठी कछु गोद।।

अर्थ :- उपरी आवरण को, भौतिक सुख को सांसारिक लोग सुख मानते है और प्रसन्न होते है किन्तु यह सम्पूर्ण संसार काल का चबेना है। यहां कुछ काल की गेंद में है और कुछ उसकी मुटठी में है। वह नित्य प्रतिदिन सबको क्रमानुसार चबाता जा रहा है।


जरा कुत्ता जोबन ससा, काल आहेरी नित्त।
गो बैरी बिच झोंपड़ा, कुशल कहां सो मित्त।।

अर्थ :- मनुष्यों को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते है – हे प्राणी! वृद्धावस्था कुत्ता और युवा वस्था खरगोश के समान है। यौवन रूपी शिकार पर वृद्धावस्था रूपी कुत्ता घात लगाये हुए है। एक तरफ वृद्धावस्था है तो दूसरी ओर काल। इस तरह दो शत्रुओं के बीच तुम्हारी झोंपडी है। यथार्थ सत्य से परिचित कराते हुए संत जी कहते है कि इनसे बचा नहीं जा सकता।


मूसा डरपे काल सू, कठिन काल का जोर।
स्वर्ग भूमि पाताल में, जहां जाव तहं गोर।।

अर्थ :- काल की शक्ति अपरम्पार है जिससे मूसा जैसे पीर पैगम्बर भी डरते थे और उसी डर से मुक्ति पाने के लिए अल्लाह और खुदा की बन्दगी करते थे। स्वर्ग , पृथ्वी अथवा पाताल में, जहां कहीं भी जाइये। सर्वत्र काल अपना विकराल पंजा फैलाये हुए है।


मन गोरख मन गोविंद, मन ही औघड़ सोय।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय।।

अर्थ :- मन ही योगी गोरखनाथ है, मन ही भगवान है, मन ही औघड़ है अर्थात मन को एकाग्र करके कठिन साधना करने से गोरखनाथ जी महान योगी हुए, मन की शक्ति से मनुष्य की पूजा भगवान की तरह होती है। मन को वश में करके जो भी प्राणी साधना स्वाध्याय करता है वह स्वयं ही अपना कर्त्ता बन जाती है।


कबीर माया बेसवा, दोनूं की इक जात।
आवंत को आदर करै, जात न बुझै बात।।

अर्थ :- माया और वेश्या इन दोनों की एक जात है, एक कर्म है। ये दोनों पहले प्राणी को लुभाकर पूर्ण सम्मान देते है परन्तु जाते समय बात भी नहीं करते।


कामी अमी न भावई, विष को लेवै सोध।
कुबुधि न भाजै जीव की , भावै ज्यौं परमोध।।

अर्थ :- विषय भोगी कामी पुरुष को कितना भी उपदेश दो, सदाचार और ब्रह्ममर्य आदि की शिक्षा दो उसे अच्छा नहीं लगता। वह सदा काम रूपी विष को ढूंढता फिरता है। चित्त की चंचलता से उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिसे कारण सद्गुणों को वह ग्रहण नहीं कर पाता है।


कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।।

अर्थ :- अज्ञान रूपी कीचड़ में शिष्य डूबा रहता है अर्थात शिष्य अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहता है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धोकर स्वच्छ कर देता है।


दीपक सुन्दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग।।

अर्थ :- प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है। ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है।

कबीर माया मोहिनी, सब जग छाला छानि।
कोई एक साधू ऊबरा, तोड़ी कुल की कानि।।

अर्थ :- सन्त कबीर जी कहते है कि यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है। इससे बचना अत्यंत दुश्कर है। कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है।


कबीर गुरु के देश में, बसि जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति वरन कुल खोय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है। उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है। अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है।


गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल।।

अर्थ :- जो मनुष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करके अपनी इच्छा से कार्य करता है। अपनी मनमानी करता है ऐसे प्राणी का लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है और काल रूपी दु:खो से निरन्तर घिरा रहेगा।


गुरु आज्ञा लै आवही , गुरु आज्ञा लै जाय।
कहै  कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।

अर्थ :- गुरु की आज्ञा लेकर आना और गुरु की आज्ञा से ही कहीं जाना चाहिए। कबीर दास जी कहते है किऐसे सेवक गुरु को अत्यन्त प्रिय होते है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करा कर धन्य करते है।


गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कमी तोहि दास।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छाडै पास।।

अर्थ :- जब समर्थ गुरु तुम्हारे सिर पर खड़े है अर्थात सतगुरु का आशीर्वाद युक्त स्नेहमयी हाथ तुम्हारे सिर पर है, तो ऐसे सेवक को किस वस्तु की कमी है। गुरु के श्री चरणों की जो भक्ति भाव से सेवा करता है उसके द्वार पर रिद्धि सिद्धिया हाथ जोड़े खड़ी रहती है।


प्रीति पुरानी न होत है, जो उत्तम से लाग।
सो बरसाजल में रहै, पथर न छोड़े आग।।

अर्थ :- यदि किसी सज्जन व्यक्ति से प्रेम हो तो चाले कितना भी समय व्यतीत हो जाये कभी पुरानी नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पत्थर सैकड़ो वर्ष पानी में रहे फिर भी अपनी अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता को नहीं त्यागता।


परारब्ध पहिले बना, पीछे बना शरीर।
कबीर अचम्भा है यही, मन नहिं बांधे धीर।।

अर्थ :- कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना। यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है।


काला मुंह करूं करम का, आदर लावू आग।
लोभ बड़ाई छांड़ि के, रांचू के राग।।

अर्थ :- लोभ एवम मोह रूपी कर्म का मुंह काला करके आदर सम्मान को आग लगा दूं। निरर्थक मान सम्मान प्राप्त करने के चक्कर में उचित मार्ग न भूल जाऊ। सद्गुरु के ज्ञान का उपदेश ही परम कल्याण कारी है अतः यही राग अलापना सर्वथा हितकर है।


दिन गरीबी बंदगी, साधुन सों आधीन।
ताके संग मै यौ रहूं, ज्यौं पानी संग मीन।।

अर्थ :- जिसमें विनम्रता प्रेम भाव, सेवा भाव तथा साधु संतो की शरण में रहने की श्रद्धा होती है उसके साथ मै इस प्रकार रहू जैसे पानी के साथ मछली रहती है।


कबीर या संसार की, झूठी माया मोह।
जिहि घर जिता बधावना, तिहि घर तेता दोह।।

अर्थ :- संसार के लोगों का यह माया मोह सर्वथा मिथ्या है। वैभव रूपी माया जिस घर में जितनी अधिक है वहा उतनी ही विपत्ति है अर्थात भौतिक सुखसम्पदा से परिपूर्ण जीव घरेलू कलह और वैरभाव से सदा अशान्त रहता है, दु:खी रहता है।


कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड।
सद्गुरु की किरपा भई, नातर करती भांड।।

अर्थ :– माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है। जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है। वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते।


माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय।
भगता के पीछे फिरै, सनमुख भाजै सोय।।

अर्थ :- धन सम्पत्ति रूपी माया और वृक्ष की छाया को एक समान जानो। इनके रहस्य को विरला ज्ञानी ही जानता है। ये दोनों किसी की पकड़ में नहीं आती। ये दोनों चीज़े भक्तों के पीछे पीछे और कंजूसों के आगे आगे भागती है अर्थात वे अतृप्त ही रहते है।


मोटी माया सब तजै, झीनी तजी न जाय।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय।।

अर्थ :- धन संपत्ति, पुत्र, स्त्री, घर सगे सम्बन्धी अदि मोटी माया का बहुत से लोग त्याग कर देते है किन्तु माया के सूक्ष्म रूप यश सम्मान आदि का त्याग नहीं कर पाते है और यह छोटी माया ही जीव के दुखो का कारण बनती है। पीर पैगम्बर औलिया आदि की मनौती ही सबको खा जाती है।


माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत।
जहां जाय तहं सुख नहीं, या माया की रीत।।

अर्थ :- माया विपत्ति रूपी काल की वह खान है जो त्रिगुणमयी विकराल रूप धारण करती है यह जहाँ भी जाती है वहाँ सुख चैन का नाश हो जाता है और अशांति फैलती है। यही माया का वास्तविक रूप है। ज्ञानी जन मायारूपी काल से सदैव दूर रहते है।


माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि माहि परन्त।
कोई एक गुरु ज्ञानते, उबरे साधु सन्त।।

अर्थ :- माया, दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है। इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है।


काल हमारे संग है, कस जीवन की आस।
दस दिन नाम संभार ले, जब लग पिंजर सांस।।

अर्थ :- कबीर दास जी कहते है कि जब काल हमारे साथ लगा हुआ है तो फिर जीने की आशा कैसी? यह जीवन मिथ्या है, जब तक शरीर में प्राण है तभी तक तुम्हारे पास अवसर है अतः इस अल्प जीवन में सतकर्म करके अपना परलोक सुधार लो।


हरिजन आवत देखि के, मोहड़े सुख गयो।
भाव भक्ति समुझयो नहीं, मूरख चूकि गयो।।

अर्थ :- हरी भक्तों को आता हुआ देखकर जिस मानव का मुख सूख गया अर्थात सेवा की भावना उत्पन्न न हुई बल्कि विचलित हो गया। ऐसे व्यक्ति को महामूर्ख जानो। जिस ने हाथ आया सुअवसर खो दिया। सन्तो के दर्शन बार बार नहीं होते।


भक्ति दुलेही गुरून की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम।।

अर्थ :- सद्गुरु की भक्ति करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है । यह कायरों के वश की बात नहीं है। यह एसे पुरुषार्थ का कार्य है कि जब अपने हाथ से अपना सिर काटकर गुरु के चरणों में समर्पित करोगे तभी मोक्ष को प्राप्त होओगे।


कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास।
मन मनसा मा जै नहीं, होन चहत है दास।।

अर्थ :- गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया। मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है।


भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहिं भाव।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुझाव।।

अर्थ :- भक्ति और भाव का निरूपण करते हुए सन्त शिरोमणि कबीर साहेब जी कहते है कि संसार में भाव के बिना भक्ति नहीं और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता है भक्ति और भाव एक दुसरे के पूरक है अर्थात इनके बीच कोई भेद नहीं है। भक्ति एवम भाव के गुण, लक्षण , स्वभाव आदि एक जैसे है।


भक्ति पंथ बहु कठिन है, रत्ती न चालै खोट।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट।।

अर्थ :- भक्ति साधना करना बहुत ही कठिन है। इस मार्ग पर चलने वाले को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह ऐसा निराधार खेल है कि जरा सा चुकने पर रसातल में गिरकर महान दुःख झेलने होते है अतः भक्ति साधना करने वाले झूठ, अभिमान , लापरवाही आदि से सदैव दूर रहें।


देखा देखी भक्ति का, कबहू न चढ़सी रंग।
विपत्ति पड़े यों छाडसि, केचुलि तजसि भुजंग।।

अर्थ :- दूसरों को भक्ति करते हुए देखकर भक्ति करना पूर्ण रूप से सफल भक्ति नहीं हो सकती, जब कोई कठिन घडी आयेगी उस समय दिखावटी भक्ति त्याग देते है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सर्प केचुल का त्याग कर देता है।


भक्ति भक्ति सब कोई कहै, भक्ति न जाने भेद।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरुदेव।।

अर्थ :- भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता। पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है। गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा।

कबीर माया मोहिनी, भई अंधियारी लोय।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय।।

अर्थ :- कबीर साहेब कहते है कि माया मोहिनी उस काली अंधियारी रात्रि के समान है जो सबके ऊपर फैली है। जो वैभव रूपी आनन्द में मस्त हो कर सो गये अर्थात  माया रूपी आवरण ने जिसे अपने वश में कर लिया उसे काम, क्रोध और मोहरूपी डाकुओ ने लूट लिया और वे ज्ञान रूपी अमृत तत्व से वंचित रह गये।


गुरु को सर पर राखिये चलिये आज्ञा माहि।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं।।

अर्थ :- गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है। गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता। गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है।


कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और।
हरि के रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर।।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते है कि वे मनुष्य अंधों के समान है जो गुरु के महत्व को नहीं समझते। भगवान के रुठने पर स्थान मिल सकता है किन्तु गुरु के रुठने पर कहीं स्थान नहीं मिलता।


गुरु मुरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहें, गुरु मुरति की ओर।।

अर्थ :- कबीर साहब सांसारिक प्राणियो को गुरु महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि हे मानव। गुरु कीपवित्र मूर्ति को चंद्रमा जानकर आठों पहर उसी प्रकार निहारते रहना चाहिये जिस प्रकार चकोर निहारता है तात्पर्य यह कि प्रतिपल गुरु का ध्यान करते रहें।


कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार।
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार।।

अर्थ :- संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें।


भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख करै जो काय।
शब्द सनेही है रहै, घर को पहुचे सोय।।

अर्थ :- भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है। जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है, सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है।


माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रोंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी तोय।

अर्थ :- मिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रोंद दूँगी।


गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिए अन्ध।
होय दुखी संसार मे, आगे जम की फन्द।।

अर्थ :- कबीरदास जी ने सांसारिक प्राणियो को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा है की जो मनुष्य गुरु को सामान्य प्राणी (मनुष्य) समझते हैं उनसे बड़ा मूर्ख जगत मे अन्य कोई नहीं है, वह आँखों के होते हुए भी अन्धे के समान है तथा जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता।


गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद।।

अर्थ :- जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता। संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है।


गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत।।

अर्थ :- गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।


मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।

अर्थ :- साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।


जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।


कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।


आगि जो लगी समुद्र में, धुआं न प्रगट होए।
की जाने जो जरि मुवा, जाकी लाई होय।।

अर्थ :- फिर इससे बचने का उपाय क्या है? मन को चिंता रहित कैसे किया जाए? कबीर कहते हैं, सुमिरन करो यानी ईश्वर के बारे में सोचो और अपने बारे में सोचना छोड़ दो। या खुद नहीं कर सकते तो उसे गुरु के जिम्मे छोड़ दो। तुम्हारे हित-अहित की चिंता गुरु कर लेंगे। तुम बस चिंता मुक्त हो कर ईश्वर का स्मरण करो। और जब तुम ऐसा करोगे, तो तुरत महसूस करोगे कि सारे कष्ट दूर हो गए हैं।


कबिरा यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
कबिरा मन ही गयंद है, आंकुष दे दे राखु ।
विष की बेली परिहरी, अमरित का फल चाखु ।।

अर्थ :- इस चंचल मन के स्वभाव की विवेचना करते हुए कबीर कहते हैं, यह मन लोभी और मूर्ख हैै। यह तो अपना ही हित-अहित नहीं समझ पाता। इसलिए इस मन को विचार रूपी अंकुश से वश में रखो, ताकि यह विष की बेल में लिपट जाने के बदले अमृत फल को खाना सीखे।


पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।

अर्थ :- संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है।


मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।

अर्थ :- मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।


साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये, मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।


जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

अर्थ :- जो जितनी मेहनत करता है उसे उसका उतना फल अवश्य मिलता है। गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ ले कर ही आता है, लेकिन जो डूबने के डर से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं वे कुछ नहीं कर पाते हैं।


शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।


गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय।
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय॥

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।


निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अर्थ :- जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।


कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।

अर्थ :- इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो!


कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।

अर्थ :- कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।


कबीर दास जी के दोहे के संग्रह के अन्य भाग जरूर पढ़ें –

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