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चेंपा मच्छर पर कविता में पढ़िए फागुन के आसपास सरसों की कटाई पर उड़़ने वाले फसलों के मच्छर ‘चेंपा’ के माध्यम से शहरों की संवेदनहीनता का चित्रण करती चेंपा मच्छर पर कविता ।
चेंपा मच्छर पर कविता
दो लघु पंखों के
छोटे – से
अल्पजीवी मच्छर चेंपे,
क्या बला हो
यार तुम भी
कि लोग रहते हैं
तुमसे सब झेंपे।
नहीं मिलाना चाहता है
तुमसे कोई आँख
लेकिन तुम हो कि
करते फिरते हो
हर तरफ ताँक – झाँक।
अपनी जान पर
खेलकर भी
बन जाते हो तुम
हर राह चलते की
आँख की किरकिरी,
खटकते हो
नयन में इतने कि
ऐंठ उसकी
रह जाती है
धरी की धरी।
तुम्हारे डर से
पहन कर काला चश्मा
लगने लगते हैं जासूस
टेड़ी मेड़ी बाइक चलाते
आज के नवयुवक,
लड़कियाँ भी
मुँह पर दुपट्टा लपेटे
कहाँ आती हैं
पहचानने में
चाहे कितना ही
देखते रहो उन्हें अपलक।
गाँव के
सौम्य परिवेश से उठ
आ गए हो तुम
इस अजनबी शहर में,
भटकते हो
बेरोजगार युवक – से
यहाँ-वहाँ
पीली – सी
फीकी दोपहर में।
यह धुआँ उगलता
पत्थरों का
शहर है प्यारे !
कोई नहीं देगा ध्यान
यदि हो भी गए तुम
किसी दुर्घटना के शिकार,
सुविधा विहीन
गाँवों की समस्याओं के प्रति
निकाला गया
तुम्हारा यह मौन जुलूस
यहाँ के
शोरगुल के आगे
बिल्कुल है बेकार।
थक जाओगे
दीवारों से सिर टकरा
पर किसी के
कान पर
जूँ तक नहीं रेंगेगी,
सड़कों गलियों में
अनशन पर बैठे तुमको
जनता यहाँ की
झाड़ बुहार
कचरे में फेंकेगी।
अतिक्रमण के नाम पर
खदेड़े गए
कच्ची बस्ती के लोगों की तरह
बचे – खुचे तुम भी
पड़े रहोगे फुटपाथों पर
शाम ढले थक हार,
रात के अंधेरे में
हो जाएगा उजागर
शहर का नंगापन
और देख सकोगे
तुम भी
यहाँ की गुंडागर्दी
चोरी- चकारी
हत्या – लूट
अबलाओं का चीत्कार।
सुकोमल कृष्ण तन में
झिलमिलाते प्राणों को सहेजे
ओ नन्हे – से जीवन,
मत ढूँढो
इन धवल अट्टालिकाओं के
सुविधा भोगी आवासियों में
ग्राम्य जनों का भोलापन।
सरसों की
पीताभ हरियाली बीच
पले – बढ़े तुम
पा न सकोगे
यहाँ शहर में
प्रकृति की वह
सहज मधुरता,
नहीं मिलेगा
सह – जीवन का
कहीं चिह्न भी
दीख पड़ेगी
मन के भावों के ऊपर
बुद्धि की ही
प्रचुर प्रखरता।
कहते तुमको
क्षुद्र जीव सब
सबकी ही नजरों से
तुम गिरे हुए हो,
पर सचमुच में
हम -सम चेंपे तुम
नहीं स्वार्थ से
घिरे हुए हो।
तुम आए तो
याद आ गए मुझे
मीलों तक फैले
सौंधी मिट्टी के
लहराते हरियाले खेत,
अब तो
लुप्त हो गई कहीं
मन में बहती
ग्राम – नदी की
निर्मल धारा
छोड़ गई
तपते जीवन में
यादों की
जलती – सी रेत।
कभी-कभी
लगता है मुझको
कि तुम आए हो
हम भटकों को
नैसर्गिक जीवन की
सीधी – सच्ची राह बताने,
पर भौतिक सुख – निद्रा में
डूबे शहरी जन
सोचेंगे कि
आए हो तुम
सुविधाओं पर
अधिकार जताने।
विषमय गैसों का
धुआँ छिड़क
वे मार तुम्हें
हाथों को झाड़ेंगे,
तेरी जन्मभूमि का
करके सौदा
धरती के
उर्वर आँचल को
भूखंडों में फाड़ेंगे।
और एक दिन
बन अतीत तुम
स्मृति से ही सबकी
खो जाओगे,
अपनी जड़ से
कट जाने की
मजबूरी जब
मुझको पीड़ा देगी
तब ओ नन्हे मच्छर,
तुम मुझको
याद बहुत आओगे।
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धन्यवाद।
Image Source :- Wikimedia