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यादों की किताब – कविता पुरानी यादों की | पुरानी यादों को ताजा करती कविता


आप पढ़ रहे है – यादों की किताब – कविता पुरानी यादों की  ।

हम सब अक्सर किताबें तो पढ़ते ही हैं। लेकिन कुछ किताबें ऐसी होती हैं इनमे शब्दों से ज्यादा भावनाओं का महत्त्व होता है। इस किताब में छिपी होती हैं कई भावनाएं जो इन्सान को अपने अतीत से जोड़ कर रखती हैं। इस किताब को ‘ यादों की किताब ‘ कहते हैं। ऐसी ही एक किताब हमने भी बनाने की कोशिश की है।जिसमें हम यादों को कविताओं के रूप में आप के सामने पेश करेंगे। आशा करते हैं आप को इस किताब की कवितायेँ पसंद आएंगी।

यादों की किताब – कविता पुरानी यादों की

यादों की किताब - कविता पुरानी यादों की

1. हो गयी ताजा वो यादें

जो मिला हूँ आज तुमसे, हो गयी ताजा वो यादें
जो तेरे संग मिलकर बिताये थे वो लम्हें
जो तेरे संग की थीं वो बातें।

तेरे दिल से जुड़ा था मेरा दिल
बिन तेरे इक पल था रहना मुश्किल,
तेरी अदाएं, तेरा मुस्कुराना,
मेरे ख्यालो में तेरा आना-जाना
तुझसे मिल कर मिलता था सुकून
तेरे ही सपनों में कटती थीं वो रातें,
जो मिला हूँ आज तुमसे, हो गयी ताजा वो यादें
जो तेरे संग मिलकर बिताये थे वो लम्हें
जो तेरे संग की थीं वो बातें।

वो जरा-जरा सी बात पर तेरी नाराजगी
चेहरे पर हरदम चमकती तेरी सादगी,
वो आकार तेरा बाहों में समा जाना
गले लग कर हर दर्द छिपा जाना,
बस हर पल तेरा साथ ही तो थी
मेरी जिंदगी की सारी चाहतें,
जो मिला हूँ आज तुमसे, हो गयी ताजा वो यादें
जो तेरे संग मिलकर बिताये थे वो लम्हें
जो तेरे संग की थीं वो बातें।

न जाने फिर क्यों आया गम-ए-दौर जिंदगी में
न जाने क्या कसर रह गयी थी मेरी बंदगी में,
छोड़ गया तू साथ मुझे छोड़ अंधेरों में
अपनों के साथ भी लगता था जैसे रहना हो गैरों में
बस इक तेरे लौट आने की उम्मीद थी
और लबों पर तुझे पाने की फरियादें,
जो मिला हूँ आज तुमसे, हो गयी ताजा वो यादें
जो तेरे संग मिलकर बिताये थे वो लम्हें
जो तेरे संग की थीं वो बातें।


2. यादों की किताब के पन्ने

आज यादों की किताब के पन्ने खोले तो
वो दिन फिर से मेरे सामने आ कर खड़े हो गए,
तेरे और मेरे बीच जो नजदीकियां हुआ करती थीं,
हर पल तेरे ही ख्याल और तेरी ही बातें मन में चला करती थीं,
तुझे देख कर ही दिल को तसल्लियाँ दिया करते थे,
तू भी हमें देख कर हर बार मुसकुराया करती थी,
तेरी अदाओं का जलवा ही तो मुझको भाया था,
न जाने कहाँ राह भटक गया जो कहने को मेरा साया था,

बढ़ रही थीं दूरियां हमारी खामोशियों के चलते,
लेकिन नजरों की जद्दोजहद अभी भी जारी थी,
शायद हम ही तेरे काबिल न थे, खामियां रही होंगी मुझमें
लेकिन मुझे तो तेरी सारी खामियां भी प्यारी थीं,
उसकी हर बात मेरे लिए खुदा का फरमान थी
वो ही मेरी चाहत और वो ही मेरा अरमान थी,

लबों ने साथ न दिया, न हिम्मत दिल में न आयी
जिसे अपना समझते रहे वो निकली परायी,
हमारी हाथों की लकीरों में दूर-दूर तक न उसके मिलने के निशान थे,
कैसे पा लेते उसे हम, हम भी खुदा नहीं इंसान थे,
यही सब पढ़ हमने पन्ने पलटने की रफ्तार मंद कर दी
हौसला न रहा किताब को थामने का तो मजबूरन बंद कर दी
आज यादों की किताब के पन्ने खोले तो…….. ।

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आपको ये कविता कैसी लगी हमें जरुर बताएं।

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धन्यवाद।

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