मौसी, जोकि माँ का रूप होती है। माँ सी होने के कारन ही जिसे मौसी कहा जाता है। बचपन में वह हमें बहुत ही प्यार से खिलाती है जैसे हम उसी की संतान हों। उनके घर आना जाना और उनका हमारे घर आना जाना लगा रहता था। मगर आज की पीढ़ी उन सभी रिश्तों से बहुत हद तक अनजान ही है। उसका कारन भी हम ही हैं। क्यों आया है ये परिवर्तन आइये जानते हैं इस मौसी पर कविता के जरिये :-
मौसी पर कविता
उस युग को तुम याद करो,
जब माँ-मासी में भेद नहीं था,
मनमुटाव जितना हो मन मे
दिल में कोई खेद नहीं था।
घूम रहे थे अनसुलझे से
रिश्तों के गहन झमेले में,
खुशीयाँ टूट गयी डोरी सी
और आँसू बेचे मेले में,
बिखरे सपने फेरी नजरे
पर प्यासा वो गैर नहीं था,
उस युग को……….
तुमने पढ़ी आयतें प्रियतम
हमने पढ़ी ऋचायें थी,
हम दोनो के पथ में अब
ये दोनों ही विपदायें थी,
निकली थी वो रात अमावस
पुर्ण चंद्र का फेर नहीं था,
उस युग को……….
निष्ठुर पतझड़ के हाँथों से
जब पूरा जंगल छला गया,
चंद लम्हे मुस्काके जब
प्यारा बसंत चला गया,
खुशीयों का त्रैमासिक मेला
बारहमासी एक नहीं था,
उस युग को……….
भोगवाद ने भौतिकता का
मापदण्ड अपनाया है,
मानवीय मूल्यों को हमने
बिलकुल यहाँ भुलाया है,
समझ लिया साधन को साध्य
बुद्धिमता का मेल नहीं था,
उस युग को……….
वंदनीय माँ के चरणों में
मासी के संस्कार धरे,
मासी माँ का ही इक रुप
माँ जैसा व्यवहार करे,
मुख मंडल पर ज्ञान रश्मियां
राग द्वेष क्लेश नहीं था,
उस युग को……….
पढ़िए :- मेरी माँ पर कविता “माँ का प्यार”
मेरा नाम प्रवीण हैं। मैं हैदराबाद में रहता हूँ। मुझे बचपन से ही लिखने का शौक है ,मैं अपनी माँ की याद में अक्सर कुछ ना कुछ लिखता रहता हूँ ,मैं चाहूंगा कि मेरी रचनाएं सभी पाठकों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें।
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