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वियोग पर कविता में मृत्यु के कारण जीवन साथी के बिछुड़ने और उससे उत्पन्न पीड़ा का चित्रण किया गया है। युवावस्था में ही पति के चले जाने के बाद जो पीड़ा, सुखमय जीवन के सपने सँजोये युवा पत्नी को भोगनी पड़ती हैं ; वह हृदय – विदारक होती है। वैधव्य के दुःख से संतापित नारी को जीवन भर एकाकीपन की मानसिक यंत्रणा में घुट – घुटकर जीना पड़ता है। उसके जीवन का भव्य महल अचानक खंडहर में बदल जाता है और समय के आघातों को सहता हुआ वह एक दिन धराशायी हो जाता है। नारी की चिर वियोग जन्य पीड़ा को ही इस कविता में संवेदनात्मक अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है। तो आइए पढ़ते हैं ” वियोग पर कविता “
वियोग पर कविता
चला गया वह छोड़ अकेला
मुझको जीवन – पथ पर,
बढ़ते ‘इति’ की ओर स्वप्न भी
ठहरे ‘अथ’ पर आकर।
जिसके साथ बँधा था मेरा
जन्म – जन्म का नाता,
आज कहाँ जा छुपा अरे ! वह
झलक नहीं दिखलाता।
समा गया वह काल – गाल में
बिना जिए ही पूरा,
क्रूर मौत की बुरी दृष्टि ने
ऐसा उसको घूरा ।
आँसू पीकर ही अब अपने
शेष दिवस बीतेंगे,
आशाओं पर लगे दाँव को
कभी नहीं जीतेंगे।
सावन जाएँगे सूखे ही
ना बसन्त महकेंगे,
जीवन – तरु पर खुशियों के अब
पंछी ना चहकेंगे।
मन के अन्दर बने रहेंगे
बारह मासों पतझर,
सूख देह के भी जाएँगे
बहते यौवन – निर्झर।
शेष कटेंगे दिन जीवन के
यूँ ही रोते – रोते,
यादों से उमड़े आँसू में
अपने नयन भिगोते।
डसा करेंगी अब नागिन – सी
लम्बी काली रातें,
नए सवेरे सूनेपन की
देंगे नित सौगातें।
जहाँ गए वे नहीं वहाँ से
वापस कोई आया,
लेकिन मेरा पागल मन यह
बात समझ ना पाया।
इन रिसते घावों को कोई
समय न भर पाएगा,
बना खण्डहर जीवन मेरा
इक दिन ढह जाएगा।
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