एक गरीब मजदूर की मार्मिक कहानी :- जिन्दगी एक ऐसी पहेली है, जिसका जवाब किसी को तभी मिलता है। जब वो शिद्दत से उसे ढूंढता है। लेकिन कई बार ये एक ऐसा चक्रव्यूह बन जाती है। जहाँ हमें एक अभिमन्यु की तरह अपने प्राण तक लुटा कर इससे बाहर निकलना पड़ता है। लेकिन इन सब में जरूरी ये होता है कि हम किसी भी परिस्थिति में अपना संयम ना खोएं। किसी भी पल अपने हृदय में किसी के प्रति द्वेष भावना मन में न लायें। यदि कोई हमारे साथ बुरा व्यवहार करे, तो हमें अपने चित्त को शांत रखना चाहिए। और उसके लिए किसी और को दोषी नहीं मानना चाहिए। ऐसा ही कुछ साबित करती मैंने एक गरीब मजदूर की मार्मिक कहानी लिखने कि कोशिश कि है।
बदला – एक गरीब मजदूर की मार्मिक कहानी
नव वर्ष का आगमन होने वाला था। फैक्टरी में सारे मजदूर काम पर लगे हुए थे। सर्दियाँ होने कि वजह से सूरज देवता का ताप ओ कि न के बराबर था वो ताप शीतल होता जा रहा था। नंदू कि नजरें फैक्टरी में काम करते हुए बार-बार दीवार पर टंगी घड़ी की ओर जा रही थी।
वो घड़ी फैक्टरी के बन जाने पर लगायी गयी थी और तब से बदली नहीं गयी। नंदू के लिए वक़्त बहुत धीरे हो गया था। वही जब उसे घर कि याद आती तो लगता वक़्त बहुत तेजी से भाग रहा है। वो इस तरह बेताब हो रहा था जैसे कोई पंछी पिंजरे से बाहर निकलने के लिए तड़प रहा हो।
मशीनों के शोर में उसके साथी शामू जो की उसका पड़ोसी भी था, ने उससे पुछा,
“क्या हुआ नंदू ? बहुत परेशान दिख रहा है।”
नंदू शायद अपनी परेशानी किसी को बताना नहीं चाहता था। इसलिए उसने अपने चेहरे के भाव को सँभालते हुए जवाब दिया,
“अरे नहीं रे, मैं तो बस छुट्टी का टाइम देख रहा हूँ। साहब से थोड़ा काम है। ”
” कोई जरूरत है क्या?”
“अरे नहीं- नहीं, कुछ नहीं है। बस घर में थोड़े पैसे कि जरूरत पड़ गयी है।”
परेशानी की सिलवटें माथे पर लिए नंदू ने शामू के सवाल का जवाब दिया। शामू ने फिर दिलासा देते हुए कहा,
“ठीक है नंदू भईया, वैसे तो साहब बहुत सज्जन आदमी हैं । तुम्हारी समस्या का हल जरूर कर देंगे।”
तभी एक ऊँचे सायरन कि आवाज आई जो कि छुट्टी होने का संकेत थी। सभी मजदूर ऐसे निकल रहे थे जैसे किसी स्कूल से छुट्टी होने पर बच्चे बाहर निकलते हों। मशीनों कि आवाज शांत हो चुकी थी और उसकी आगाह इंसानों कि बातचीत ने ले ली थी। कुछ ही पल में जब सब मजदूर चले गए तो फैक्टरी में एक सन्नाटा सा पसर गया।
नंदू के मन में इस सन्नाटे में भी एक तूफान का अलग सा शोर मचा हुआ था। जैसे ही वो बड़े साहब के दफ्तर के बाहर पहुंचा। वहां उसे मुंशी घनश्याम दास ने देख लिया और देखते ही बोले,
“नंदू, तू यहाँ क्या कर रहा है? कुछ काम था क्या?”
” मुंशी जी काम तो बड़े लोगों को होता है। हम जैसे गरीब लोगों कि तो मजबूरियां होती है। जो कहीं भी जाने को मजबूर कर देती हैं।”
“ऐसी बातें क्यों कर रहा है तू? सब खैरियत से तो है ना?”
“खैरियत? गरीब कि खैरियत तो अमीर की खैरात में होती है। हमारी जिंदगी तो बस सूरज के उगने और डूबने भर कि मोहताज है। इसी तरह एक दिन हमारी जिन्दगी भी डूब जाएगी। इतने दिन जीना है बस सूरज कि तरह जलते रहना है।”
“ये क्या बोले जा रहा है? तू वही नंदू है ना जो दूसरों को हौसला देता है। तूफानों का सामना करने वाला नंदू आज हवा के झोंको से डर गया।”
“जो पेड़ मजबूत होकर तूफानों का सामना करते हैं। जिनका आंधी-पानी भी कुछ बिगाड़ सकते। उन पेड़ों को वक़्त का दीमक ऐसा खता है कि पेड़ ऊपर से तो मजबूत दिखता है पर अन्दर से खोखला हो जाता है और फिर एक हवा का झोंका भी उसे तिनके कि तरह उड़ा कर कहीं दूर फेंक देता है।”
कहते-कहते नंदू कि आँखें नाम हो गयी थीं। मुंशी उसे अच्छी तरह जानते थे। वो कभी हार मानने वाला नहीं था। फिर आज ना जाने कैसे वो इतना कमजोर हो गया था। कारण जानने के लिए घनश्याम दास ने नंदू से पुछा कि हुआ क्या है तो नंदू ने जवाब दिया कि पिछले चार-पांच बरस से खेत-खलिहान में मौसम कि मार कि वजह से कोई भी फसल नहीं हो पायी है। अब घर में खाने का एक दाना भी नहीं है। बेटी ब्याहने के लायक हो गयी थी। खेत गिरवी रख कर शादी की। अब रोज कर्जदार तकाजा करने आते हैं।
छोटू कि फीस नहीं गयी थी कई महीनों से तो उसे भी स्कूल से निकाल दिया गया है। पत्नी रो सबको थोड़ा बहुत खिला कर खुद भूखे पेट सो जाता है। अब तो बस आन देने का दल करता है पर सोचते है बाद में परिवार का क्या होगा। ये सब बताते -बताते नंदू की आँखों से दर्द रोपी आंसुओं की धारा बह निकली।
मुंशी इ को ये सब मालूम न था और जब वो ये सब आन गए तो उन्हें यकीन न हुआ कि नंदू इतना सब कुछ होने के बावजूद भी किसी से कुछ नहीं कहता। कितनी हिम्मत है उसमें जो सब कुछ अकेला ही सह रहा है। उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि नंदू कि इस हालत पर क्या प्रतिक्रिया दें। घनश्याम दास ने नंदू कि पीठ थपथपाते हुए कहा,
“हौसला रख नंदू सब ठीक हो जाएगा। इन आंसुओं को रोक के रख, ये इंसान को कमजोर बना देते हैं। अकसर जिन्दगी से लड़ने कि उम्मीद आंसुओं के समंदर में डूब कर दम तोड़ देती है। चल मई भी चलता हूँ साहब के दफ्तर में तेरी समस्या का कोई हल शायद निकल ही जाए।”
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दोनों दफ्तर के अन्दर जाने के लिए आगे बढ़ते हैं,
“अन्दर आ जाएँ मालिक?’
मुंशी ने दरवाजा खोलते हुए अन्दर बैठे साहब से पूछा।
“आइये मुंशी जी, कैसे आना हुआ?”
फाइल को मेज पर रखते हुए साहब ने घनश्याम दास से पूछा। हिचकिचाते हुए मुंशी जी बोले,
“साहब….ये नंदू है। हमारी फैक्टरी में बहुत सालों से काम कर रहा है। इसकी ईमानदारी कि पूरे गाँव में मिसाल दी जाती है।”
“ऐसे और भी कई काम करने वाले होंगे मुंशी जी। आप मुद्दे पर आयें इसे यहाँ किसलिए लेकर आये हैं?”
“इसे कुछ पैसों कि जरूरत है मालिक। बहुत मुश्किल में है ये।”
घनश्याम दास के इतना कहते ही साहब कुर्सी से उठ खड़े हुए और थोड़ी कड़क आवाज में बोले
“मैंने यहाँ कोई कुबेर का खान लूट कर नहीं रखा कि कोई भी आये और मांगने लगे। ये ओ काम करते हैं उसके पैसे तनख्वाह के तौर पर इनको दे दिए जाते हैं। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर सकते।”
“मालिक बस थोड़े से पैसे चाहिए। चार दिन में तनख्वाह मिल जाएगी उसमें कटवा देंगे। घरवाली की तबीयत ख़राब है। अगर पैसों का बंदोबस्त न हुआ तो वो मर जाएगी।” रोते हुआ नंदू घुटनों के बल हो बैठा। लेकिन साहब के रवैये में कोई नरमी न आई। उन्होंने फिर उसी लहजे में कहा,
“देखो तुम्हारे यहाँ आंसू बहाने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब तुम जा सकते हो।”
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुयी।,
“सर चलिए आज पड़ोस के मंदिर में गरीबों को कम्बल बांटने जाना है।”
“अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया था। चलो नहीं तो देर हो जाएगी।”
कह कर साहब एक अपने पी.ए. के साथ चले गए। कमरे में फिर एक सन्नाटा छा गया। नंदू जो कि घुटनों के बल बैठा उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा।
“नंदू तू चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा।”
this story tell us a character of man and a campair of a rich man b/w poor labour.
You are right Amit…
अच्छी लगी
धन्यवाद Prabhu Ram जी.
I love your story sir
Thank you very much brother Amartya Avinav….
WAH SAR JI DIL CHU LIYA IS KAHANI NE
THANKS
शुक्रिया Bhupendra Sharma जी.. … बस जीवन की असलियत को पेश करने की कोशिश की है……इसी तरह हमारे साथ जुड़े रहें व प्रोत्साहित करते रहें…आपका बहुत बहुत आभार. ….
nice
Thanks Rashmi Ji….