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आज के युग में सब रावण के पुतले को जला कर बुराई का अंत करना चाहते हैं। लेकिन कोई भी खुद के अन्दर बैठे रावण को मारना नहीं चाहता। यही सच बता रही हहै हरीश चमोली जी की ये दशहरा पर्व पर कविता :-
दशहरा पर्व पर कविता
खुशियों का त्योहार मनाकर
खुद को पाक दिखला रहे हैं
न झाँककर देखा अपने अंदर
कितने रावण तिलमिला रहे हैं,
खुशी के साथ दशहरा मनाकर
खुद को ही सब झुठला रहे हैं
जलाकर रावण के पुतले को
खुद को राम बतला रहे हैं।
रिश्तों के मान को कर तार तार
खुद को संस्कारी दिखा रहे हैं
नारियों से कर दुराचार
नारी के महत्त्व का पाठ सिखा रहे हैं,
बच्चियों को गर्भ में ही मरवाकर
खुद का पौरुष दिखला रहे हैं
जलाकर रावण के पुतले को
खुद को राम बतला रहे हैं।
मानव स्वयं अब अपने कदम
अंधकार की ओर बढ़ा रहे हैं
अत्याचार और हिंसा फैलाकर
प्रजा को आपस मे लड़ा रहे हैं,
न जाने आज कितने रावणों की
पीठें जानबूझ कर सहला रहे हैं
जलाकर रावण के पुतले को
खुद को राम बतला रहे हैं।
देखो आज कलियुग में हर घर
कितने रावण पलते हैं
सच्चाई मिटती है जा रही
बस बुराई के दानव चलते हैं,
आज के सारे युवा भी तो
बुराई में मन मचला रहे हैं
जलाकर रावण के पुतले को
खुद को राम बतला रहे हैं।
आज जरूरत है हमको
राम सी मर्यादा लाने की
रिश्तों के अटूट बंधनों को
प्रेम भाव से सजाने की,
बिन फूंके अंदर का रावण
कह इंसान स्वयं को बहला रहे हैं
जलाकर रावण के पुतले को
खुद को राम बतला रहे हैं।
मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
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