नवरात्री के नौ दिनों बाद दशमी को अत है विजयादशमी का त्यौहार। जी वही दिवस जिस दिन भगवान श्री राम जी ने रावण का संहार कर उसके पापों का अंत किया था। वह रावण तो रणक्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हो गया परन्तु हमारे समाज में ऐसे बहुत सारे रावण पैदा हो गए। आज जरूरत कागज के पुतले से बने रावण को जलने की नहीं बल्कि समाज के उन रावनों को जलाने की है जो मानवता को भूल पाप कर्मों में लिप्त हो गए हैं। इसी भाव को प्रस्तुत करती है यह विजयादशमी पर कविता :-
विजयादशमी पर कविता
हर विजयादशमी पर मिलकर
रावण जला रहे सारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
कुछ रावण नेता के रूप में
करते हैं भ्रष्टाचार
मानव की सेवा के नाम पर
करते हैंअत्याचार,
देश के इन लुटेरों को
कोई क्यों न सुधारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
बाबाओं का रूप धरे कुछ
जनता को मूर्ख बनायें
उनके मेहनत के पैसों से
अपनी ऐश उड़ायें,
सरेआम ही सबके सामने
धर्म की छवि बिगाड़ें
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
भगवान का जिनको दर्जा है
करते हैं अंग व्यापर
इलाज हुए इतने महंगे
बिक जाते घर बार,
कितने ही मर जाते फंस
इन के चंगुल में बेचारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
नारी की इज्जत से खेलें
कुछ हैवान दरिन्दे
अब तो रक्षक ही बने हुए हैं
समाज के असली गुंडे,
कौन सुने आवाज यहाँ
जब कोई मजलूम पुकारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
पाप बढ़ा इस धरा पर इतना
प्रभु कब लोगे अवतार
कोई तो हो ऐसा जो
करे पापियों का संहार,
आपकी दी शिक्षा को कोई
जीवन में क्यों न उतारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
हर विजयादशमी पर मिलकर
रावण जला रहे सारे
जो रावण हैं बसे जहां में
कोई उनको क्यों न मारे।
पढ़िए :- रावण के जन्म का सम्पूर्ण इतिहास
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