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एकलव्य की कहानी | महान धनुर्धर एकलव्य की जीवन की कथा


Eklavya Story In Hindi – कहते हैं ना कि नदी को रास्ता नहीं दिखाना पड़ता, वो खुद-ब-खुद अपना रास्ता बना लेती है। इसी प्रकार पुराने समय में एक ऐसा शिष्य हुआ जिसने अपने हुनर और गुरु भक्ति से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवा लिया। वो वीर योद्धा था एकलव्य। लेकिन इस वीर योद्धा की जिंदगी का अंत कैसे हुआ। आइये जानते है वीर  एकलव्य की कहानी विस्तार में :-

महान धनुर्धर एकलव्य की कहानी

एकलव्य की कहानी | महान धनुर्धर एकलव्य की जीवन की कथा

बात उस समय की है, जब शिक्षा का रूप आज से बहुत अलग हुआ करता था। उस समय के विद्यालय गुरुकुल हुआ करते थे। विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए सब अपने गुरुके पास आश्रम में ही रहते थे| सभी मिलजुल कर एक परिवार की तरह रहते और मिल बाँट कर सब काम किया करते थे। सभी शिष्य बड़ी निष्ठा और ईमानदारी के साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। उस समय शिक्षा भी कुल के अनुसार ही दी जाती थी। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के इलावा किसी को भी शिक्षा नहीं दी जाती थी।

महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला हुआ एक राज्य श्रृंगवेरपुर था। व्यात्राज हरिण्यधनु (Vyatraj Harinyadhanu) उस आदिवासी इलाके के राजा व एक महान योद्धा थे। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी।

निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा व उनकी प्रजा सुखी और सम्पन्न थी। निषादराज हिरण्यधनु की रानी सुलेखा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। बचपन में वह “अभय” के नाम से जाना जाता था। बचपन में जब “अभय” शिक्षा के लिए अपने कुल के गुरुकुल में गया तो अस्त्र शस्त्र विद्या में बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक को “एकलव्य” नाम से संबोधित किया।

सारी शिक्षाएँ प्राप्त कर एकलव्य युवा हो गया तब उसका विवाह हिरण्यधनु के एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से हुआ। एकलव्य को अपनी धनुर्विद्या से संतुष्टि न थी इस कारन धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लीये उसे उस समय धनुर्विद्या में दक्ष गुरू द्रोण के पास जाने का फैसला किया।

एकलव्य के पिता जानते थे कि द्रोणाचार्य केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते हैं और उन्होंने एकलव्य को भी इस बारे में बताया परंतु धनुर्विद्या सीखने की धुन और द्रोणाचार्य को अपनी कलाओं से प्रभावित करने की सोच लेकर उनके पास गया। परंतु ऐसा कुछ भी न हुआ और गुरु द्रोणाचार्य ने उसे धनुषविद्या देने से इनकार कर दिया।



एकलव्य इस बात से तानिक भी आहत ना हुआ और उसने वहीँ जंगल में रह कर धनुर्विद्या प्राप्त करने के ठान ली। उसने जंगल में द्रोणाचार्य की एक मूर्ती बनायी और उन्हीं का ध्यान कर धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली।

एक दिन आचार्य द्रोण अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ आखेट के लिए उसी वन में पहुँच गए जहाँ एकलव्य रहते थे। उनका कुत्ता राह भटक कर एकलव्य के आश्रम पहुँच गया और भौंकने लगा। एकलव्य उस समय धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ते के भौंकने की आवाज से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। अतः उसने ऐसे बाण चलाये की कुत्ते को जरा सी खरोंच भी नहीं आई और कुत्ते का मुँह भी बंद हो गया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी और अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया।

कुत्ता द्रोण के पास भागा। कुत्ता असहाय होकर गुरु द्रोण के पास जा पहुंचा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर को खोजते-खोजते एकलव्य के आश्रम पहुंचे और देखा की एकलव्य ऐसे बाण चला रहा है जो कोई चोटी का योद्धा भी नहीं चला सकता। ये बात द्रोणचार्य के लिये चिंता का विषय बन गयी। उन्होंने एकलव्य के सामने उसके गुरु के बारे में जानने की जिज्ञासा दिखाई तो एकलव्य ने उन्हें वो प्रतिमा दिखा दी।

उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। अपनी प्रतिमा को देख आचार्य द्रोण ने कहा कि अगर तुम मुझे ही अपना गुरु मानते हो तो मुझे गुरु दक्षिणा दो। एकलव्य ने अपने प्राण तक देने की बात कर दी। गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने अंगूठे की मांग की जिससे कहीं एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ना बन जाए अगर ऐसा हुआ तो अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने का वचन झूठा हो जाएगा। एकलव्य ने बिना हिचकिचाहट अपना अंगूठा गुरु को अर्पित कर दिया। इसके बाद एकलव्य को छोड़ कर सब चले गए।

एक पुरानी कथा के अनुसार इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते तो ये भी हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है।



बाद में एकलव्य श्रृंगबेर राज्य वापस आ गए और वहीँ रहने लगे। पिता की मृत्यु के बाद वहाँ का शासक बन गए और अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करते, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर ली और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।

एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।

जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।

कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को वीरगति प्रदान की और इन सब के पीछे केवल एक ही वजह थी कि तुम धर्म के रास्ते पर थे। इसलिए धर्म की राह कभी मत छोड़ना’।


एकलव्य की कहानी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें कभी भी हार नहीं माननी चाहिए और अपने हौसलों से हालातों को बदलना चाहिए। आपने इस कहानी से क्या शिक्षा प्राप्त की कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें। और इस एकलव्य की कहानी को अधिक से अधिक शेयर करे,

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धन्यवाद।

72 Comments

  1. संदीप जी !!! आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं | मैं ने अनेकों बार इनका सहारा लिया है | सरल भाषा में सटीक विषय पर आप के लेख प्रस्तुत होते हैं | समाज सेवा और साहित्य निर्माण की इस कला के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएँ |

  2. जब कोई इतिहास लिखा जाता है तो उसका रेफरेंस दिया जाता है ऐसे तो कोई भी कुछ भी लिख देगा क्योकि जो आपको समझ आएगा वही आप लिखेंगे क्योकि हर आदमी के समझने का तरीका अलग होता है इसलिए आपने ये कहानी अपने मन से लिखी है नही तो आप लिखो की इसे आपने गीता के किस अध्याय में किस श्लोक के आधार पर लिखा इस तरह सिर्फ पैसा कमाने के लिए अधूरी बात नही लिखना चाहिए में इसका पूर्ण विरोध करता हु और आपसे अनुरोध करता हु की आप इसे या तो रेफ्रेन्स के साथ लिखे या इसे डिलीट कर दे धन्यवाद

      1. Sir,आपको तहें दिल से बहुत -२ धन्यवाद! पहली बार किसी ने सत्य लिखा है की एकलव्य एक निषाद जाति के राजा का पुत्र था! बाक़ी सभी ने तोड़ मरोड़ कर अपने हिसाब से पेश किया है! जिससे बहुत भ्रांतियाँ है!

        कोई एकलव्य को कृष्णा के चाचा का लड़का बताया है मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि ! अगर एकलव्य कृष्ण के चाचा के लड़के थे तो कृष्ण उनकी हत्या क्यों की?
        और फिर वह निषादो का राजा क्यों बना जबकि यदि वह कृष्ण के चाचा काँ लड़का था तों उसे यादव सेना सेना संचालन करना चाहिए था और यादवों राजा होना चाहिए था!

        एसी तरह सत्य घटना पर सत्य लिखते रहे जिससे हमें अपने महापुरुषों से सही दिशा में प्रेरणा मिलती रहे!
        2- कृपया माता सत्यवती , Maharishi वेद व्यास और Maharishi बाल्मीकी जी कौन से जाति से सम्बन्ध है कृपया सत्यता से मर्गदर्शन करने की कृपा करे ? और इनके बारे ज़रूर लिखे!

        धन्यवाद?

  3. कहानी के लिए धन्यवाद।
    कुछ विद्या के मंत्र भी होते हैं। एकलव्य धनुर्विद्या के मंत्र भी जानता था। इतिहास में कई प्रसंग मिलते हैं, जिसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि किसी का चिंतन करते करते जिसका चिंतन किया जाता है, उसके मन (अंत;करण) से हमारे अंतर्मन की एकता हों जाती है। यही रहस्य है कि एकलव्य धनुर्विद्या के मंत्र भी जानता था। ॐ

  4. श्रीमान सभी के अपने विचार है , सच का पता नही ,किसी को अपना आदर्श मानकर उसी के अनुसार बनने का प्रयाग करना क्या गलत होता है? सायद नही, हम बिना किसी सहयोग के उसी की तरह बन भी जाते है तो मैं ये समझता हूँ कि ये एक अद्भुत कला होगी आज का मानव अर्थात जिसे आदर्श माना गया है वो प्रसन्न होगा। वो उसकी कला का सम्मान करेगा उसके अधिगम कौसल का सम्मान करेगा।

  5. द्रोणाचार्य ने कब एकलावय का अपमान किया और उसे आश्रम से भगा दिया इसका स्पष्टीकरण दें अथवा व्यर्थ के प्रपंच न परोसे | द्रोणाचार्य ने अपनी विवशता जाहीर कि थी न कि एक्ल्व्य का अपमन किया था | विनती है या तो कथाएँ सही रूप मे सबके सामने रखे नहीं तो लिखना बंद कर दें |

    1. शिव प्रसाद जी राम एकलव्य से युद्ध नहीं कर सके थे। आप शायद अर्जुन कहना चाहते थे…. तो मैं यही कहूँगा कि हर के अपने विचार हैं। सबकी मानसिकता अलग-अलग है।

  6. धन्यवाद
    आपने सच्ची कहानी लिखी तोड़ मोड़ नहीं किया।
    वैसे मेने अन्ये लेखको की कहानी पढ़ी।
    उसमे सचाई काम जूठ ज्यादा पिरोया गया है।
    थैंक्स। धनयवाद।

    1. मंगलाराम जी अप्रतिमब्लॉग का यही लक्ष्य है कि पाठकों तक सही जानकारी पहुंचाई जाए। इसीलिए हमने चाहे काम लेख लिखे हों परंतु इस बात का ध्यान रखा है कि उसमें सच्चाई हो।
      धन्यवाद।

  7. सही हैं कि गुरु द्रोण ने हुनर को कुचल डाला इसका यही मतलब था कि ईसके रहते हुए मैं अर्जून को महान धनुष धारी नहीं बना सकता
    ..।.।मैं खुद eklaya school study ki hai….
    …..आज.सारा इतिहास हसता.हैं गूरू द्रोणा पर..
    …..?..खून से सना eklaya का अगूठा इतिहास बताता हैं

  8. क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को वीरगति प्रदान की और इन सब के पीछे केवल एक ही वजह थी कि तुम धर्म के रास्ते पर थे। इसलिए धर्म की राह कभी मत छोड़ना’।
    Kya eklavya धर्म के रास्ते पर नही थे।

    1. मैंने जो महाभारत देखा है, उसमे बताया जाता है की, जब दुर्योधन को एकलव्य के गुणों के बारे में पता चलता है तो दुर्योधन एकलव्य को अपने साथ मिला लेता है जैसे उसने अश्वस्थामा को मिला लिया था, ताकि वो आगे चलके एकलव्य का उपयोग अपने अधर्म के कामो के लिए करे, इसलिए एकलव्य को श्रेष्ठ धनुर्धर बनने से रोकना आवश्यक हो गया था…

      1. इसका एक ही जवाब है वो है कर्ण में क्या कमी थी जो कृष्ण जी ने अर्जुन के हाथों मरवा दिया।

    1. राहुल दोनावाले जी, हमारे पास जितनी भी जानकारी थी और जितना जानकारी उपलब्ध कराना हमसे संभव हो पाया, उतना जानकारी हमने इस लेख में दे दिए है. मोटा तौर पे हमने उसकी जीवनी ही यहा प्रस्तुत किया है, इसके अलावा भी अगर आपको जानकारी चाहिए तो हमारे साथ बने रहिये हम कोशिश जरुर करेंगे, धन्यवाद.

    1. धन्यवाद Sk भाई। बस आप लोगों का प्यार ही है जो ये सब लिख लेते हैं। इसी तरह हमारे साथ बने रहिये और प्रोत्साहन देते रहिये। आपका बहुत-बहुत आभार।

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    JNTUK KAKINADA- 533 003
    EAST GODAVARI DISTRICT
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    1. सुधीर जी आपकी सोच आज के ज़माने के हिसाब से सही है लेकिन उस समय तो अगर कोई किसी को एक बार गुरु मान लेता था तो सारी जिंदगी उसका शिष्य ही रहता था। शायद इसीलिए उस समय गुरु-शिष्य का रिश्ता पवित्र था।
      खैर ये तो अपनी – अपनी सोच की बात है। अपने विचार प्रकट करने के लिए धन्यवाद।

  11. जिसे शिक्षा लेनी हो या कुछ भी पाना हो तो मन में एकलव्य की भाति ठान लेना चाहिए।की चाहे जो भी हो मुझे जो सीखना या पाना है वह पाके रहूंगा।

    1. सही बात कही अपने मनोज रामेश्वर माध्यानि जी। जब सिर पे जुनून चढ़ जाता है तो हर चट्टान एक छोटा पत्थर नजर आता है अपने विचार पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद।

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