जीवन में अपने वजूद की तलाश में निकले हुए एक इन्सान की कविता। जिसका लक्ष्य अब सिर्फ अपनी पहचान दुनिया के सामने लाना है। लक्ष्य पाने के लिए सबसे जरूरी होता है लक्ष्य की तरफ बढ़ना। लक्ष्य की ओर चल पड़ना ही लक्ष्य पाने की शुरुआत होती है। तो आइये पढ़ते हैं लक्ष्य की तरफ बढ़ते एक मुसाफिर की कविता, लक्ष्य पर कविता :-
लक्ष्य पर कविता
न जाने आज मैं
किस ओर चल रहा हूँ
अनजानी राहों में
गिरने से संभल रहा हूँ,
कदम डगमगाए कितने ही
फिर भी राह में खड़ा हूँ
मुसाफिर हूँ मैं यारों
लक्ष्य ढूंढने चल पड़ा हूँ।
बाधाएं हैं लाख आती
मैं उनके मुताबिक ढल रहा हूँ
मिले जीत या हार कुछ भी
अब मैं निकल रहा हूँ,
चक्रव्यूह भेदने को जग का
मैं अभिमन्यु सा बढ़ा हूँ
मुसाफिर हूँ मैं यारों
लक्ष्य ढूंढने चल पड़ा हूँ।
पर्वतों सा अडिग मैं
साहस से भरा हूँ
सागर की लहर सा
कभी न ठहरा हूँ,
मिलने को साहिल से
मैं चट्टानों पर चढ़ा हूँ
मुसाफिर हूँ मैं यारों
लक्ष्य ढूंढने चल पड़ा हूँ।
छाले पड़े हैं पैरों में
फिर भी न मैं रुकता हूँ
मन पर करने को विजय
अब मैं खुद से लड़ता हूँ,
मंजिल पाने की बेताबी में
सबका आशिर्वाद लिए बढ़ा हूँ
मुसाफिर हूँ मैं यारों
लक्ष्य ढूंढने चल पड़ा हूँ।
न जाने क्या सोच
मैं आज निकल चुका हूँ
बीते समय को पछाड़
मैं आगे बढ़ चुका हूँ,
पहचान मिले खुद की
यही सोच मैं खुद से लड़ा हूँ
मुसाफिर हूँ मैं यारों
लक्ष्य ढूंढने चल पड़ा हूँ।
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मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
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