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वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बदलाव और सुधार की आवश्यकता को सार्थक करती ये सत्य घटना पर आधारित कहानी है, कृपया कहानी पढ़े और अपने विचार हमें दे।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बदलाव
“सर ये आपने क्या किया ?”
मैं अभी स्कूल में पहुंचा ही था, कि अचानक एक तरफ से आवाज आई। मैंने मुड़ कर देखा तो एक अध्यापिका जो कि उसी स्कूल में पढ़ाती थी। सवाल पूछते हुए मेरी तरफ आ रही थीं। अपनी तरफ आते हुए देख मेरे चेहरे पर असमंजस के भाव आने लगे, और मैंने डर रुपी जिज्ञासावश पुछा,
“क्या हुआ मैम ? मैंने क्या किया ?”
“मेरी बेटी के इंग्लिश में नंबर 90% के ऊपर आते थे और आपके पढ़ाने से 80% से भी नीचे चले गए।”
ये वाक्य इतने दृढ नहीं थे कि मुझे विचलित कर सकते। स्कूल ज्वाइन किये हुए मुझे अभी दो ही महीने हुए थे। लेकिन इन दो महीनों में मैं अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रहा। और पूरे स्कूल को मेरी काबिलियत के बारे में पता चल गया था।
शायद यही कारण था कि वो अध्यापिका मुख्याध्यापिका के पास जाने के बजाय मेरे पास आई थीं। या फिर वो इस बात से परेशान थीं कि ऐसा हुआ कैसे । मैंने उनकी मनोदशा समझते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया,
“मेरे लिए ये नंबर 100% से भी ज्यादा हैं।”
“मतलब आप संतुष्ट हैं इन नम्बरों से ?”
“बिलकुल ।”
“क्यों?”
“क्योंकि ये नंबर उसने अपनी मेहनत से प्राप्त किये हैं।”
“क्यों ? पहले भी तो वो मेहनत करती थी तब तो कभी नंबर कम नहीं आयी ?”
“आप टेंशन मत लीजिये । मुझ पर विश्वास रखें । अगली बार नंबर जरुर ज्यादा आएँगे ।
“ठीक है, आप पर छोड़ रही हूँ। मुहे इस बार बहुत टेंशन है। घर पर भी जा कर जवाब देना पड़ेगा।”
“आप बेफिक्र होकर जाइये। मैं सब देख लूँगा।
“ठीक है।”
इतना कह कर वह चली गयी। रिजल्ट आने में अभी कुछ देर थी लेकिन उन्होंने इंचार्ज से नंबर पता कर लिए थे । मुझे उनके इस व्यव्हार पर हंसीं आ रही थी और हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर अफ़सोस भी हो रहा था ।
वो दिन बीता, धीरे-धीरे तीन महीने बीत गए और छमाही परीक्षा आ गयी। वो लड़की सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। एक कक्षा कि दो श्रेणियां होती थीं। उसके नंबर दोनों श्रेणियों में सब से ज्यादा आते थे। लेकिन मेरे दो महीने पढ़ाने के कारण वह 90% से 78% पर पहुँच गयी थी ।
छमाही परीक्षाएं समाप्त हुयीं और इस बार उसके अंक 86% आये। जोकि अभी भी उसकी माता यानि कि उन अध्यापिका के लिए संतोषजनक न थे । इसका आभास मुझे तब ही हो गया जब वो फिर से मेरे पास आयींऔर फिर से वही शिकायत की। लेकिन इस बार कुछ प्रतिशत बढ़ने के कारण मेरे पास सफाई देने का मौका था।
“सर, आपने कहा था नंबर बढ़ेंगे लेकिन ये तो फिर कम आ गए।”
“कम आ गए? पिछली बार से 10% बढे हैं। अगली बार और बढ़ जाएँगे आप चिंता मत कीजिये।”
“मुझे तो डर हैं कहीं उसकी पढ़ाई बेकार ना हो जाये। जैसा भी था वो अच्छे नंबर जरुर लेती थी।”
मैंने फिर वही पुरानी बात कही,
“मैं अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रहा हूँ। मुझे आपका साथ चाहिए मै तभी कोई नतीजा दे पाउँगा। इसलिए थोडा सब्र रखिये, सब अच्छा होगा।”
“ठीक है।”
एक बार फिर ऐसा बोल कर वह चली गयीं। अब मुझ पर एक अतिरिक्त जिम्मेवारी आ गयी थी। लेकिन मैंने धैर्य के साथ काम किया और अपने ही तरीके से पढ़ाता रहा। उसकी पढाई में बी बदलाव हो चुका था। समय बीतता गया और वार्षिक परीक्षाएं आ गयीं। ये सिर्फ उस लड़की की नहीं मेरी भी परीक्षा थी। परीक्षाएं समाप्त होने पर परिणाम आया। इस बार उस लड़की के नंबर 90% से भी ज्यादा आये थे। जिस कारण उसकी माँ खुश थी। वो मेरे पास आई और बोली,
” गुड़िया के इस बार 90% से ज्यादा नंबर आये हैं। खुश हैं आप?”
“खुश तो मैं उस दिन भी था जिस दिन उसके 80% से कम नंबर आये थे। आप ही बेवजह चिंता कर रहीं थीं।”
“लेकिन ऐसा क्या था जो उसके नंबर कम हो गए थे? क्या कमी थी उसमें?”
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“कमी उसमें नहीं हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में है। जहाँ पर चीजों को रटाया जाता है। मैंने कोशिश कि थी उसे समझाने की जिसमें मैं सफल रहा। अब अगर उसे सिर्फ किताबें दे दी जाएँ तो भी वह पढ़ सकती है, बिना अध्यापक कि मदद से। पहले उसके अन्दर याद करने की इच्छा होती थी। लेकिन अब पढने कि इच्छा है जिस से चीजें खुद -ब-खुद याद हो जाती हैं।”
“बहुत धन्यवाद आपका आपने इतना ध्यान दिया। मुझे पता नहीं था कि ऐसा कुछ है। पर मैं खुश हूँ कि उसे आप जैसा अध्यापक मिला।”
“अरे! ऐसा कुछ नहीं है, मैं तो सिर्फ अपन काम कर रहा था।”
“ठीक है सर अब चलती हूँ थोड़ा सा काम है।”
“ठीक है, नमस्ते।”
“नमस्ते।”
उस दिन मुझे एक अंदरूनी खुशी मिली। लेकिन दुःख भी हुआ। क्यों आजकल स्कूलों में पढ़ने के बजाय रटाने पर ध्यान दिया जाता है। मेरे हिसाब से इंसानों और मशीनों में ये अंतर होता है :- कि इन्सान अपनी समझ के अनुसार कार्य करता है। और मशीन दिए गए निर्देशों के अनुसार।हमे ऐसे वीद्यार्थी नहीं चाहिए जो मशीनों कि तरह काम करें। जिनके लिए किसी प्रश्न का हल बस वही हो जो उन्होंने सीखा है । बल्कि उनके अन्दर ये काबिलियत होनी चाहिए, कि वो हर प्रश्न का उत्तर अपनी समाझ से दें। उन्हें हर उस बात का ज्ञान हो जो वो बोल रहे हैं।
उनमें एक जिज्ञासा का आभाव है। जिस दिन वह जिज्ञासा जाग गयी। दुनिया के हर कोने में एक नया अविष्कार मिलेगा। अंत में यही कहना चाहूँगा कि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कुछ बदलाव कि आवश्यकता है। तभी जाकर हम एक मनोवैज्ञानिक तौर पर मजबूत समाज कि स्थापना कर सकते हैं ।
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