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हिंदी कविता अनाथालय | सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’ की कविता

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‘ हिंदी कविता अनाथालय ‘ मुक्त छन्द की एक लम्बी कविता है जिसमें अनाथाश्रम में रह रहे वृद्धों और बाल – गृहों में पल रहे बालको के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। अनाथाश्रम में वृद्ध पुरुष, परित्यक्ता महिलाएँ और अनाथ बच्चे अलग – अलग रहकर जीवन यापन कर रहे हैं, जिसके कारण उनका जीवन नीरसता से भर गया है। यदि वृद्ध, महिलाएँ और बच्चे सभी साथ-साथ रहें तो उन्हें पारिवारिक वातावरण उपलब्ध होगा जिससे उनका जीवन खुशियों से भर  जाएगा। इससे बच्चों को, बड़ों का प्यार मिलेगा और बड़ों को बच्चों का निश्छल अपनापन। इस तरह सभी का समय आराम से व्यतीत हो सकेगा। सामाजिकता का यह भाव जीवन  को बोझ बनने से बचाएगा।

हिंदी कविता अनाथालय

हिंदी कविता अनाथालय

अनाथालय में
एक ओर
पेड़ों के नीचे पड़ी
बैंचों पर
बैठे हैं
कुछ वृद्ध सुस्ताते,
बीच – बीच में
बतिया भी रहे हैं
वे आपस में
पर चेहरे से
किंचित भी खुश
नजर नहीं आते।

जीवन भर की
गाढ़ी कमाई
कर अपने
लाडले बेटों के नाम,
अब
दुत्कारे गए उनसे
विवश हैं
यहाँ अनाथालय में
बिताने को
जीवन की शाम।

इसी अनाथालय के
दूसरे छोर पर
रहती हैं
कुछ दीन-हीन महिलाएँ
अपने फटे आँचल से
दुःख के काँटे छाँटती,
घर जमीन के
बँटवारे के बाद
निकाल दिया गया है
इन्हें घर से बाहर
ऐसे में ये
अपनी फूटी किस्मत
भला किससे बाँटती।

लगभग
एक जैसी है
इन बुजुर्गों के
अपमानित अतीत की
दुःख भरी कहानी,

सुनाते रहते हैं
उसे ही
ये बार – बार
ढुलका कर
धुँधलायी आँखों से
खारा पानी।

इस अनाथालय के
ठीक सामने
जो भवन बना है
उसे बालगृह हैं कहते,
यहाँ पर
कुछ छोड़े गए
कुछ इधर उधर से मिले
ठुकराए लावारिस
अनाथ बच्चे हैं रहते।

ये दुर्बल
सहमे सहमे – से बच्चे
अपने माता-पिता
घर-बार के बारे में
कुछ भी नहीं जानते,
न रूठते

न मचलते
डाँट फटकार के साथ
जो भी मिल जाता
उसे ही अपना
सौभाग्य मानते।

बोझिल है
वातावरण अनाथालय का
पसरी है चारों ओर
अजीब सी शान्ति
यहाँ के बच्चे बूढ़े
हर आने जाने वाले को
सुनी आँखों से
रहते हैं ताकते,
हर रोज उगता है सूरज
और शाम को
ढल जाता है
किन्तु उजाले
इनके अंधरे मन में
आकर भी
नहीं झाँकते।

कितना अच्छा हो यदि
उदासियों के
ये नीरस क्षण
सब मिलकर बिताएँ,
आपस में
विश्वास जगे तो
गहन निराशा के
उमड़ाते बादल
कुछ तो छँट जाएँ।
वृद्ध पुरुष
और महिलाएँ
इन बेघर
मासूमों पर
अपना प्यार लुटाएँ ,
बचपन खोते
ये बच्चे भी
इनकी ममता की
छाया में
आतप से
कुछ राहत पाएँ।
मुरझाए बच्चे
अवसादों को भूल सभी

फूलों – से
खिल- खिल जाएँ,
और वृद्ध जन
पतझर-से
रूखे जीवन में
नव बहार के
पल्लव पाएँ।
नए पुराने का
यह संगम
भीनी-भीनी गंध लुटा
जग को महकाए,
बोझ बना
यह मानव – जीवन
भूल दुःखों को
फिर से मुस्काए।

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