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Guru Ki Mahima गुरु की महिमा नमक यह लेख क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं? पुस्तक का एक हिस्सा है। इस पुस्तक में स्वामी रामसुखदास जी ने सच्चे गुरु की पहचान बताई है। साथ ही ये भी बताया है कि हमें कि हमें गुरु की आवश्यकता किन कारणों से है और उनकी पूर्ति कैसे की जा सकती है। आशा करते हैं उनका यह लेख पढ़ कर आपको सच्चे गुरु की महिमा के बारे में कुछ अच्छा जानने को मिलेगा।
Guru Ki Mahima
गुरु की महिमा
वास्तवमें गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई कर नहीं सकता। गुरु की महिमा भगवान् से भी अधिक है। इसलिये शास्त्रों में गुरुकी बहुत महिमा आयी है। परन्तु वह महिमा सच्चाई की है, दम्भ-पाखण्डकी नहीं। आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है। कौन अच्छा है और कौन बुरा-इसका जल्दी पता लगता नहीं।
जो बुराई बुराई के रूपमें आती है, उसको मिटाना सुगम होता है।
परन्तु जो बुराई अच्छाई के रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है।
सीता जी के सामने रावण, राजा प्रतापभानु के सामने कपटमुनि और हनुमान जी के सामने कालनेमि आये तो वे उनको पहचान नहीं सके, उनके फेरे में आ गये; क्योंकि उनका स्वाँग साधुओं का था। आजकल भी शिष्योंकी अपने गुरुके प्रति जैसी श्रद्धा देखने में आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीं। इसलिये सेठ जी श्रीजयदयाल जी गोयन्द का कहते थे कि आजकलके गुरुओं में हमारी श्रद्धा नहीं होती, प्रत्युत उनके चेलों में श्रद्धा होती है! कारण कि चेलों में अपने गुरुके प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है।
शास्त्रों में आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमान में प्रचार के योग्य नहीं है। कारण कि आजकल दम्भी-पाखण्डी लोग गुरु महिमाके सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इसमें कलियुग भी सहायक है; क्योंकि कलियुग अधर्म का मित्र है- ‘कलिनाधर्ममित्रेण’ ( पद्मपुराण, उत्तर० १९३ । ३१ )। वास्तव में गुरु-महिमा प्रचार करने के लिये नहीं है, प्रत्युत धारण करने के लिये है।
कोई गुरु खुद ही गुरु महिमाकी बातें कहता है, गुरु-महिमा की पुस्तकों का प्रचार करता है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मनमें गुरु बनने की इच्छा है। जिसके भीतर गुरु बनने की इच्छा होती है, उससे दूसरों का भला नहीं हो सकता। इसलिये मैं गुरु का निषेध नहीं करता हूँ , प्रत्युत पाखण्ड का निषेध करता हूँ। गुरु का निषेध तो कोई कर सकता ही नहीं।
कुछ नहीं गुरु की महिमा वास्तव में शिष्य की दृष्टिसे है, गुरु की दृष्टि से नहीं। एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है। गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैंने किया, प्रत्युत जो स्वतः स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी।
तात्पर्य हुआ कि मैंने उसी के स्वरूप का उसीको बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीं। चेले की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मेरेको सब कुछ दे दिया। जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है। तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको तत्त्वबोध हुआ है।
असली महिमा उस गुरुकी है, जिसने गोविन्दसे मिला दिया है। जो गोविन्दसे तो मिलाता नहीं, कोरी बातें ही करता है, वह गुरु नहीं होता। ऐसे गुरुकी महिमा नकली और केवल दूसरोंको ठगनेके लिये होती है!
आशा करते हैं आप को इस लेख में सच्चाई लगी होगी और आज के समय में गुरु की परिभाषा को लेकर आपके मन में बहुत से प्रश्न उठे होंगे।
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धन्यवाद।