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‘ कछुआ और हंस ‘ कविता, पंचतंत्र की एक कहानी का पद्य में अनुवाद है। कहानी में दो हंस अपने मित्र कछुए की जान बचाने के लिए उसे एक लकड़ी से मुँह के सहारे लटकाकर आकाश मार्ग से दूसरे तालाब में ले जाते हैं। रास्ते में गाँव वालों की बातें सुनकर कछुआ अपना मुँह खोल देता है और जमीन पर गिरकर मर जाता है। इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें बिना बात व्यर्थ नहीं बोलना चाहिए। वाचालता विनाश का कारण बन सकती है।
कछुआ और हंस पद्यकथा
बहुत वर्ष पहले इक वन में
था तालाब बहुत ही सुन्दर,
रहते उसके अन्दर आए
भिन्न-भिन्न कितने ही जलचर। 1।
तैरा करती थी पानी में
रंग – बिरंगी कई मछलियाँ,
उछलकूद कर दिनभर मेंढक
करते रहते वहाँ मस्तियाँ। 2।
वहीं एक रहता था कछुआ
जो था बहुत बड़ा बातूनी,
दूर – दूर सबके रहने से
हुई जिन्दगी उसकी सूनी। 3।
एक बार दो हंस कहीं से
उस जंगल में उड़ कर आए,
शांति युक्त उस वन प्रदेश के
दृश्य सभी हंसों को भाए। 4।
बहुत बड़ा तालाब रहा वह
खिल रहे जहाँ थे कई कमल,
ऐसे में उन हंसों के मन
नीचे आने को उठे मचल। 5।
हंस रोज ही तैरा करते
उसी सरोवर में अब आकर,
हुआ बहुत ही कछुआ भी खुश
मित्र रूप में उनको पाकर। 6।
कछुए को वे हंस प्रेम से
तरह-तरह की कथा सुनाते,
और शाम को उड़कर वापस
दूर बहुत अपने घर जाते। 7।
बीत रहे थे उन तीनों के
दिन ऐसे ही हँसी – खुशी से,
लेकिन अबकी हुई न वर्षा
चिन्तित थे वे हंस इसी से। 8।
सूख रहा तालाब दिनोंदिन
तेजी से कम होता पानी,
ऐसे में तो इस कछुए को
पड़ सकती है जान गँवानी। 9।
तब कछुए से हंस एक दिन
चिन्ता में भरकर यह कहते,
मित्र ! सूख तालाब रहा है
कुछ हम करें समय के रहते। 10।
मरती हैं अब रोज मछलियाँ
पानी का संकट है भारी,
जगह छोड़ने की यह तुमको
करनी है जल्दी तैयारी। 11।
देखो ! है तालाब दूसरा
पाँच मील की ही दूरी पर,
अच्छा है तुम इसे छोड़कर
रहो वहाँ पर ही अब जाकर। 12।
बारह मास भरा रहता है
उसके भीतर गहरा पानी,
तुमसे मिलने में भी हमको
वहाँ बड़ी होगी आसानी। 13।
कछुआ बोला – पर मैं कैसे
इतनी दूरी चल पाऊँगा,
भूख- प्यास से तड़प तड़प कर
बीच राह ही मर जाऊँगा। 14।
चिन्ता के सागर में गहरे
डूब गया कछुआ बेचारा,
हंसों से बोला – अब तो बस
तुम दोनों का बचा सहारा। 15।
अब तो इस संकट से मित्रो !
जैसे भी हो तुम्हीं उबारो,
मुझे यहाँ से ले जाने का
मिलकर कोई यत्न विचारो। 16।
इसी सोच में तब हंसों ने
अपने थे मस्तिष्क लगाए,
और खोजकर फिर वे दोनों
लकड़ी का डण्डा ले आए। 17।
कछुए से बोले – अपने को
इसके बीच रहो लटकाए,
हमको है अपनी चोचों से
रखना इसके सिरे दबाए। 18।
मुँह से पकड़े रहना लकड़ी
बीच राह में नहीं छोड़ना,
चाहे कोई कुछ भी बोले
मुँह तुमको है नहीं खोलना। 19।
कछुए को समझाकर फिर वे
दोनों हंस लगे थे उड़ने,
आसमान की ऊँचाई में
धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने 20।
एक गाँव से जब वे गुजरे
लोग देख उनको मुस्काते,
देख अजूबा ऊपर नभ में
जोर – जोर से शोर मचाते। 21।
कहते थे वे – अरे ! हंस ये
कछुए को मारेंगे आगे,
उनके पीछे धरती पर ही
बड़ी दूर तक वे थे भागे। 22।
रहा गया ना चुप कछुए से
ग्रामीणों की सुन ये बातें,
जो उसके सीने के ऊपर
नश्तर – सी करतीं आघातें। 23।
उस कछुए ने कहना चाहा
अरे ! मूर्ख हो क्या तुम सारे,
प्राण बचाने वाले ये तो
परम मित्र हैं हंस हमारे। 24।
लेकिन कछुए ने जैसे ही
यह कहने को था मुँह खोला,
गिरा भूमि पर सीधा नीचे
उससे कुछ भी गया न बोला। 25।
थोड़ी देर तड़प धरती पर
तोड़ दिया था कछुए ने दम,
रहे देखते हंस दूर से
कर बेचारे आँखों को नम। 26।
अधिक बोलने की आदत से
जान गँवा बैठा वह कछुआ,
अपने प्रिय साथी को खोकर
मन हंसों का अति दुःखी हुआ। 27।
बच्चो ! ठीक नहीं होता है
बिना जरूरत कहीं बोलना,
कहने से पहले ही मन में
है आवश्यक शब्द तोलना। 28।
( Hans Aur Kachhua Kavita Me ) एकता पर आधारित कविता ‘ कछुआ और हंस पद्यकथा ‘ आपको कैसी लगी? अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।
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धन्यवाद।