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इस पद्य कथा ” धूर्त से मित्रता ” में मित्रता करते समय पूर्ण सावधानी रखने की सीख दी गई है। अक्सर धूर्त लोग मीठी – मीठी बातें बनाकर अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरों को अपने जाल में फँसा लेते हैं। हमको ऐसे दुष्ट प्रकृति के लोगों के साथ मित्रता करने से बचना चाहिए। साथ ही यह कथा विपदा के समय धैर्य से काम लेने का भी संदेश देती है ताकि संकट से बचने के उपाय सोचे जा सकें।
धूर्त से मित्रता
कभी एक जंगल में रहता
हिरन बहुत ही सुन्दर,
वहीं एक रहता कौआ भी
घने पेड़ के ऊपर।1।
रहते रहते उन दोनों में
हुई मित्रता गहरी,
बैठ छाँव में अब वे बातें
करते रोज दुपहरी।2।
एक दूसरे के सुख दुःख में
रहती भागीदारी,
बनी विषय चर्चा का वन में
उन दोनों की यारी।3।
एक दिवस वह हरिण मजे से
जंगल में था चरता,
मीठी कोमल मगर घास से
मन ना उसका भरता।4।
तभी अचानक इक सियार की
नजर पड़ी थी उस पर,
मोटी ताजी देह देखता
वह मुँह में पानी भर।5।
खुशी उसे थी बड़े दिनों में
यह शिकार था पाया,
लेकिन सोच रहा था इसको
कैसे जाए खाया।6।
पास हरिण के आ वह बोला
कैसे हो तुम प्यारे,
मेरी इच्छा है बन जाओ
तुम भी मित्र हमारे।7।
कहा हरिण ने भैया तुमसे
कैसे होगी यारी,
मैं खाता हूँ घास – पात बस
तुम हो माँसाहारी।8।
तब सियार वह बोला मैंने
माँस कभी का छोड़ा,
राह अहिंसा की चुनकर अब
हिंसा से मुँह मोड़ा।9।
कंद फूल फल खाकर ही मैं
करता जीवन – यापन,
पूर्णतया है शाकाहारी
अब तो मेरा भोजन।10।
बहुत प्रभावित हुआ हरिण वह
सुन सियार की बातें,
और मित्रता के शब्दों की
दी हँसकर सौगातें।11।
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साथ-साथ में उन दोनों को
जब कौए ने देखा,
खिंच आई उसके माथे पर
तब चिन्ता की रेखा।12।
कहा हरिण से ठीक नहीं है
अनजाने से यारी,
इससे इक दिन आ सकती है
हम पर विपदा भारी।13।
इस पर कहा हरिण ने तुम भी
कभी रहे अनजाने,
लेकिन अब तो लगते जैसे
जन्मों से पहचाने।14।
हुई मित्रता देखो जैसे
मेरी और तुम्हारी,
वैसे ही संभव है होना
इस सियार से यारी।15।
यह सुन कौआ मौन हो गया
सहन कर गया ताना,
नहीं चाहता था आगे को
वह अब बात बढ़ाना।16।
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रहे बीतते दिन उनकी भी
रही मित्रता जारी,
छुपा रखी थी पर सियार ने
मन में कपट – कटारी।17।
हरिण मारने का मौका वह
अक्सर ढूँढा करता,
सच्चा साथी होने का पर
दम ऊपर से भरता।18।
उस सियार ने कहा हरिण से
घास यहाँ का सूखा,
कुछ दिन और रहे तो तुमको
मरना होगा भूखा।19।
चलो यहाँ से कुछ दूरी पर
फैली है हरियाली,
हरे – भरे खेतों की भैया
होती बात निराली।20।
है अनाज का अभी खेत में
कच्चा मीठा दाना,
स्वाद भरी इस हरी फसल को
तुम जी भरकर खाना।21।
चिकनी – चुपड़ी इन बातों में
शीघ्र हरिण वह आया,
सफल योजना होती देखी
तो सियार मुस्काया।22।
साथ हरिण के वह सियार था
खेतों में जा पहुँचा,
चरो यहाँ पर मित्र मजे से
बोला स्वर कर ऊँचा।23।
मग्न हो गया हरिण वहाँ तो
हरी फसल को चरते,
बिछे जाल में फँसा मगर वह
उछल – कूद तब करते।24।
छुपा झाड़ में देख रहा था
वह सियार रख दूरी,
बहुत दिनों की आस उसे अब
लगती होती पूरी।25।
लगा सोचने – जब प्रातः को
कृषक यहाँ आएगा,
फँसा देखकर इसे जाल में
खुशी बहुत पाएगा।26।
मार इसे फेंकेगा जब वह
मैं बाहर आऊँगा,
बड़े मजे से बहुत दिनों तक
बैठ माँस खाऊँगा।27।
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उधर शाम को बड़ी देर तक
हरिण नहीं जब आया,
कौए के मन में चिन्ता का
गहराया तब साया।28।
लगा ढूँढने मित्र हरिण को
वह कौआ बेचारा,
नहीं मिला तो देर रात को
लौटा घर थक – हारा।29।
सुबह हुई तो हरिण खोजने
फिर से कौआ निकला,
दूर खेत में फँसे हरिण का
तब जाकर पता चला।30।
देख हरिण को कौआ बोला
था कितना समझाया,
किन्तु धूर्त की संगत में पड़
तुम्हें समझ ना आया।31।
कहाँ गया वह धूर्त यहाँ से
फँसा जाल में तुमको,
देखो कैसा मजा चखाता
अब मैं भी हूँ उसको।32।
तभी हरिण कौए से बोला
की मैंने नादानी,
आज जान से उसकी कीमत
शायद पड़े चुकानी।33।
माफ मुझे कर देना भैया
जो कुछ भी तुम्हें कहा,
और हरिण वह पछताता था
आँखों से अश्रु बहा।34।
कौआ बोला – धैर्य धरो अब
आँसू यूँ न बहाओ,
जैसा मैं कहता हूँ तुमसे
वैसा करते जाओ।35।
जब किसान आए तो अपनी
रोक साँस को लेना,
अपने को जीवित होने का
शक मत होने देना।36।
मरा जान कर वह किसान जब
तुम्हें दूर डालेगा,
साथ इसी के मौत तुम्हारी
समझो वह टालेगा।37।
जब बोलूँ मैं काँव काँव तो
शीघ्र भाग तुम जाना,
पड़े रहो अब मरे हुए का
करके यहाँ बहाना।38।
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कुछ देरी में वहाँ खेत का
मालिक था जब आया,
फँसे जाल में एक हरिण को
उसने मृत था पाया।39।
किया हरिण को मुक्त जाल से
डाल पास में आया,
इतने में ही वह कौआ भी
काँव काँव चिल्लाया।40।
समझ गया संकेत हरिण वह
उठ तेजी से भागा,
देख दृश्य यह वह किसान था
मन ही मन झल्लाया।41।
उस किसान ने डंडा लेकर
फेंक जोर से मारा,
किन्तु हरिण तो निकला आगे
तनिक न हिम्मत हारा।42।
छुपा झाड़ में वह सियार था
लगा उसी के डंडा,
चकराया तड़पा कुछ पल वह
और हो गया ठंडा।43।
कौआ और हरिण दोनों फिर
खुश होकर थे रहते,
करो मित्रता नहीं धूर्त से
सबसे यह ही कहते।44।
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